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तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन
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मोह की प्रबलता साधना के क्षेत्र में बढ़ने से पहले आपको संसार की अनित्यता को हृदय से महसूस करना चाहिए । जब आप भली-भांति विचार कर लेंगे कि इस जगत का प्रत्येक पदार्थ नश्वर है, किसी भी दिन छूट सकता है और न छूटे तो हमें स्वयं ही एक दिन इसे छोड़ना है, तो आपको स्वयं ही इन सबसे विरक्ति हो जाएगी और इन पर से आपका मोह हट जाएगा । मोह-कर्म यद्यपि सभी कर्मों से बलशाली है, किन्तु संसार से विरक्त हो जाने वाला प्राणी इसे कैदखाना मानकर इससे छूटने के लिये महान् विकलता का अनुभव करता है। तथा इस मोह को धिक्कारते हुए इससे छूटने का प्रयत्न करता है। श्री भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में लिखा है
अजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने । स मोनोऽप्यज्ञानाडिशयुतमश्नातु पिशितम् ॥ विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिला
नमुञ्चामः कामानहह गहनो मोह महिमा ॥ कहते हैं-अज्ञानवश पतंगा दीपक की लौ पर गिरकर स्वयं को भस्म कर लेता है, क्योंकि यह उसके परिणाम को नहीं जानता। इसी तरह मछली काँटे के मांस को मुंह में ग्रहण करके अपने प्राण खोती है क्योंकि वह भी अपने प्राण-नाश के भय को नहीं समझती। परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानते हैं कि संसार के विषय-भोग विपत्ति के कारण हैं और उनके प्रति रहा हुआ हमारा मोह हमें अनन्त काल तक इस संसार में कैद रखने वाला है, तब भी हम इसका त्याग नहीं करते । मोह की यह महिमा कितनी आश्चर्यजनक है ? _इसलिये बंधुओ ! जब तक हम इस संसार के पदार्थों से मोह करते रहेंगे और इनसे सुख पाने के लिए इनका पीछा करते रहेंगे, तब तक सच्चा सुख मृगतृष्णा की भांति हमसे दूर होता जाएगा। और जिस दिन हम संसार के इन सुखों से मुंह मोड़ लेंगे तथा आशा, तृष्णा एवं भोगेच्छाओं का त्याग करके आत्मस्वरूप में रमण करने लगेंगे, उसी दिन सच्ची शांति, सच्चा संतोष एवं सच्चा सुख हमारे कदमों पर बिखर जाएगा। किसी ने कहा भी है
भागती फिरती थी दुनिया, जब तलब करते थे हम ।
अब जो नफरत हमने की तो बेकरार आने को है ॥ सारांश यही है कि सुखों की इच्छा रखने से और उन्हीं के लिये प्रयत्न में
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