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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग __ क्योंकि पुरुषों में भी अच्छे और बुरे व्यक्ति होते हैं और स्त्रियों में भी यही बात लागू होती। दोनों के एक-दूसरे के अधिक संपर्क में आने से मन में विकार आ सकता है अतः पानी आने से पहले ही पाल बाँधे रखना ठीक है। अन्यथा ब्रह्मचर्य व्रत भंग होते ही अन्य सभी गुण खतरे में पड़ जाएंगे। कहा भी है
'जम्मि य भग्गंमि होइ सहसा सव्वं भग्गं....। जमि य आराहियंमि आराहियं वयमिणं सव्वं ।।
-प्रश्नव्याकरण २/४ —एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सब गुण नष्ट हो जाते हैं तथा एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर शील, एवं विनय आदि सभी व्रत आराधित हो जाते हैं।
इसलिए साधु-साध्वियों को जहाँ अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, वहाँ श्रावक एवं श्राविकाओं को भी एकदेशीय व्रत का हढ़ता से पालन करना चाहिए। तभी 'स्त्री परिषह' और पुरुष परिषह पर विजय प्राप्त की जा सकेगी और ऐसा करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। क्योंकि आत्माएँ चाहे साधु की हों या श्रावक की, सभी संसार में भ्रमण कर रही हैं और उन्हें कर्मों से मुक्त होना है। यह तो है नहीं कि केवल साधुओं को ही मोक्ष में जाना है और श्रावकों को नहीं । क्या आप लोग मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रखते ? यह कार्य केवल साधुओं के लिये ही है क्या ? नहीं, आप सब भी यही चाहते हैं कि हम संसार से मुक्त हो जाएं और यह भी जानते हैं कि साधुओं की या साधकों की आत्मा चाहे जितनी शुद्ध हो जाय और भले ही संसार-मुक्त भी हो जायं पर उससे आपकी आत्मा का कोई भला नहीं हो सकता । आपकी आत्मा का भला तो तभी होगा जबकि आप स्वयं इसके लिये प्रयत्न करेंगे, स्वयं साधना करेंगे और स्वयं ही त्याग एवं नियमों का पालन करके कर्मों की निर्जरा करेंगे ।
जिस प्रकार लखपति के पास बैठ जाने से और उसकी बातें सुन लेने से ही कोई लखपति नहीं बन सकता । वह लखपति बनता है तो अपने स्वयं के श्रम और पुरुषार्थ से, इसी प्रकार संतों की संगति कर लेने से, उनके उपदेशों को सुन लेने से या उनकी सराहना करने से आप अपने आत्मा को निर्मल नहीं बना सकेंगे । आपकी आत्मा तभी निर्मल हो सकेगी, जबकि आप स्वयं इसके लिये प्रयत्न करेंगे । और यह तभी होगा जब आप स्वयं जिन वचनों के अनुसार तथा संतों के उपदेशों के द्वारा आत्म-मुक्ति के साधनों को समझकर उन्हें जीवनसात् करेंगे।
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