SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन भोगों की इच्छा करने पर रागजनित कर्मों का बंध होता है। उसके पश्चात् जब वह भोगों के साधन संचित करने के लिये प्रयत्न करता है तो नाना प्रकार के आरंभ- समारंभ करने पड़ते हैं, उससे कर्म बंधते हैं। इतना करने पर भी अगर भोग-सामग्री प्राप्त न हुई तो पश्चात्ताप, खेद आदि से कर्म बधन होता है और अगर प्राप्त हो गई तब तो फिर कमी ही क्या रह जाती है ? मनुष्य भोगों में इतना आसक्त हो जाता है कि जीवन के उद्देश्य का उसे स्मरण ही नहीं आता तथा रातदिन भोगों में डूबे रहकर कर्म बांधता रहता है। किन्तु इसके विपरीत जो शीलधर्म का पालन करता है वह अनेक प्रकार का लाभ उठाते हुए अन्त में अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है। शील की महिमा बताते हुए एक स्थान पर कहा है शील प्राणभृतां कुलोदयकरं शीलं वपुर्भूषणम् । शीलं शौचकरं विपद्भयहरं दौर्गत्यदु:खापहम् ॥ शीलं दुर्भगतादिकन्ददहनं चिन्तामणिप्राथिते । व्याघ्रव्यालजलानलादिशमनं स्वर्गापवर्गप्रदम् ॥ । अर्थात्-शील मनुष्यों के कुल की उन्नति करने वाला है क्योंकि शीलवान के कुल की कीर्ति बढ़ती है तथा श्री वृद्धि होती है। शील मनुष्य के शरीर का भूषण है क्योंकि उसके पालन से शरीर ओजस्वी, आभायुक्त और सुन्दर बनता है । शील से अन्तःकरण पवित्र बनता है, इससे विपत्ति और भय का अभाव हो जाता है। शील दुर्गति के दुखों का निवारण करता है तथा दुर्भाग्य को मूल सहित दूर कर देता है। शील इष्ट की प्राप्ति के लिये चिन्तामणि के समान है क्योंकि उसके समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। शील के प्रखर प्रताप से व्याघ्र, सर्प, जल और अग्नि आदि की समस्त बाधाएं दूर हो जाती हैं। इसके अलावा इन लौकिक लाभों के अतिरिक्त शील से स्वर्ग और मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। अगर शील पवित्र है तो उसका धारी व्यक्ति नीच गति में नहीं जाता। यदि कर्म बंध न हो तो मोक्ष और कर्म बाकी रहने पर स्वर्ग तो प्राप्त होगा ही। तो बधुओ, शीलव्रत का पालन करना मुमुक्षु के लिये आवश्यक है। और इसके लिये यह भी आवश्यक है कि मुमुक्षु पुरुष जाति में से हो तो वह स्त्रियों से कम संपर्क रखे और स्त्री जाति में से हो तो वह पुरुष के संसर्ग में कम आए। यह नियम दोनों के लिये समान है और दोनों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy