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________________ २७० एक कवि ने इसी विषय में और कहा है -- आनंन्द प्रवचन | पाचवा भाग " माता बहिन व कन्या समझू पराई नारी । समभाव सब को देखूं ऐसी प्रभु नजर दो । भगवन ! दया की दृष्टि अब टुक इधर भी कर दो । कवि का कहना है-अपनी पत्नी के अलावा संसार की स्त्रियों में से जो बुजुर्ग हैं उन्हें मैं माता के समान, मेरी समकक्ष उम्र की हैं उन्हें बहन की तरह और छोटी लड़कियों को मैं अपनी पुत्री के समान समझ सकूं, हे प्रभो ! मेरी दृष्टि ऐसी ही बना दो। आपकी कृपा से यह हो सकेगा अतः मेरी ओर अपनी कृपादृष्टि फेरो । कवि ने जैसी भावना व्यक्त की है, उसके अनुसार दृष्टि हो जाने पर फिर किसी व्यक्ति का मन अन्य स्त्री को देखकर विकारग्रस्त नहीं होगा । कहा जाता है कि एक बार जोधपुर के राजा तखतसिंह जी ने किसी संत से पूछा - " आप लोगों की सेवा में यानी आप लोगों के दर्शनार्थ अनेक स्त्रियां आती हैं, तो उनके बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से सज्जित सौन्दर्य को देखकर आप अपने दिल पर कैसे काबू रख पाते हैं ?" संत ने कहा -- "महाराज ! क्या आपकी बहन जब आपको राखी बांधती है, उस समय आपके मन में उसे देखकर विकार उत्पन्न होता है ?" "नहीं !” राजा ने उत्तर दिया । " बस, इसी प्रकार संत सब स्त्रियों को अपनी बहन समझते हैं । इसलिये उन्हें देखकर भी उनके मन में विकार पैदा नहीं होता ।" संत की बात सुनकर राजा को निरुत्तर हो जाना पड़ा । सत्य भी यही है कि विकार भावनाओं से जागता है अतः साधक ईश्वर से यही प्रार्थना करता है कि मेरी दृष्टि में कभी विकार न आए । संत तुकाराम जी मराठी भाषा में कहते हैं "पापाची वासना नको माझ्या डोला, त्याहूनि आंधला बरामीच ।” भक्त कहता है - हे प्रभो, मेरे हृदय में कभी भी पापपूर्ण भावनाएँ न आएँ । और अगर कभी मेरी दृष्टि में पाप आने लगे तो मुझे अन्धा ही कर देना । Jain Education International वास्तव में ही भोगेच्छाओं पर विजय प्राप्त करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यन्त श्रेष्ठ है । शीलव्रत के पालन से मानव की शारीरिक, मानसिक, वाचिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है । भोग वास्तव में कर्मबन्ध के कारण हैं । भोगों का मूल भोग भोगने की अभिलाषा है । यहीं से कर्म बँधने प्रारंभ हो जाते हैं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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