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तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन
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ठीक अर्धरात्रि के समय लक्ष्मी पुन; सेठजी के स्वप्न में आई । उत्तर तो तैयार ही था अतः बिना झिझक के उन्होंने वही बात कह दी जो दिन को कहना
तय हुआ था ।
लक्ष्मी यह सुनकर अवाक रह गई । वह तो सोच रही थी कि सेठ रोएगा, गिड़गिड़ाएगा और परिवार के भूखों मर जाने की आशंका व्यक्त करेगा । किन्तु यह सब कुछ नहीं हुआ, उलटे निश्चितता पूर्वक सेठ जी ने अन्त में कह दिया - "तुम रहो तो प्रसन्नता की बात है पर नहीं ही रहना चाहती हो तो ठीक है, जाओ ?"
अन्त में लक्ष्मी ने कहा - " सेठ जी ! मैं तुम्हारे यहाँ से जाना चाहती थी किन्तु तुम्हारे घर के सब व्यक्तियों में इतना संगठन है, प्रेम है कि मैं अब जा नहीं सकती ।"
कहने का अभिप्राय यही है कि सती-साध्वी एवं सुलक्षणा नारियाँ ही घर में लक्ष्मी को टिकाती हैं । वे समय-समय पर अपने पति को सच्ची सीख देने से भी नहीं चूकतीं ।
श्रीपाल और मैना सुन्दरी की कथा में आता है कि जब श्रीपाल परदेश जाने लगते हैं तो प्रथम तो मैनासुन्दरी साथ चलने की इच्छा व्यक्त करती है, किन्तु श्रीपाल के यह कहने पर कि वहाँ मेरे रहने का भी ठिकाना नहीं होगा तो तुम्हें कहाँ रखूँगा, वह साथ चलने की जिद छोड़ देती है पर पति को जाते समय यह जरूर कहती है
बरस सोलह से ऊपर नार से बातें नहीं करना । जब आँखें चार होती हैं मोहब्बत हो ही जाती है ॥
बात मनोरंजक ढंग से कही गई है पर उसमें 'स्वदार संतोष' के व्रत की याद दिलाते हुए शिक्षा भी दी है कि अपने व्रत को भंग मत करना ।
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने अपने वनगमन के समय भरत को भी यही सीख दी थी
"परस्त्री मात सम जानी, कभी लोभ को त्याग पर धन में, कहे श्रीराम भरत
रहा हूं पर तुम मेरी दो बातों को के समान समझना, दूसरे कभी अपनी मर्यादा में रहना, उसे भंग
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रामचन्द्र जी की नसीहत थी कि - "भाई भरत ! मैं तो वन-वास करने जा कभी मत भूलना । एक तो परस्त्री को सदा माता पराये धन के लिये मत करना ।
लोभ मत करना । इस प्रकार
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मोहब्बत में मत फँसना, भंग मरजाद मत कीजे, ताई कि भैया बात सुन लीजे ।
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