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तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन
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अपने व्यवहारों और क्रियाओं से इस पर बराबर चल नहीं पा रहे हैं । किन्तु आप कब तक लापरवाही करेंगे ? जबकि आप भी अपनी आत्मा को इस संसार से छुटकारा दिलाना चाहते हैं तो निश्चय ही आपको साधना का मार्ग अपनाना होगा और इस पर चलना पड़ेगा ।
इसलिये धर्माराधन, साधना और परिषह विजय, इन सभी को साधुओं का कार्यं कहकर आप बच नहीं सकते । भले ही साधुओं के समान अभी आप दृढ़ न रह सकें, आरम्भ समारम्भ का पूर्णतया त्याग न कर सकें तथा संक्ष ेप में कहा जाय तो पांचों महाव्रतों का पालन न कर सकें तो भी श्रावक के पालन करने योग्य एकदेशीय अर्थात् थोड़े अंशों में तो आपको भी व्रतों का पालन करना ही चाहिये । और इसीलिए आपको एकदेश मर्यादा की दृष्टि से स्वस्त्री-संतोष एवं परस्त्री के त्याग का पालन करना चाहिये ।
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कोई शंका करेगा कि इसके लिये व्रत क्यों ? उत्तर यही है कि व्रतों को ग्रहण करने से मन में दृढ़ता आती है और जीवन श्रेष्ठ बनता है । अगर व्यक्ति किसी एक नियम को ग्रहण कर लेता है तो वह धीरे-धीरे अन्य व्रतों को भी ग्रहण करता हुआ अपने आप पर नियंत्रण रखने में समर्थ बनता है ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है
अर्थात अपने-आप पर नियन्त्रण रखना चाहिये । रखना वस्तुतः कठिन है किन्तु ऐसा करने वाला ही इस लोक बनता है ।
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अप्पा चैव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिलोए परत्थ य ॥
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- अध्ययन १, गा० १५
अपने आप पर नियन्त्रण और परलोक में सुखी
कहने का अभिप्राय यही है कि शाश्वत सुख की आकांक्षा रखने वाले को अपने आप पर पूर्ण नियन्त्रण रखना होगा और अपने आप पर नियन्त्रण तभी हो सकेगा जबकि मनुष्य व्रतों को ग्रहण करता जाएगा तथा त्याग की ओर अधिक से अधिक बढ़ेगा ।
तो अभी हमारा विषय 'स्त्री परिषह' पर कल से चल रहा है । इस संबंध में मुझे यह और कहना है कि जिस प्रकार साधु को स्त्री जाति से परे रहना चाहिये, उसी प्रकार साध्वी को भी पुरुष जाति से सम्पर्क नहीं रखना चाहिये तथा इसी परिषद् को अपने लिये 'पुरुष परिषद्' मानना चाहिये ।
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