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________________ २७ तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! कल हमने बाईस परिषहों में से आठवें परिषह 'स्त्री परिषह' के विषय में विचार-विमर्श किया था। इस विषय में बताया गया था कि साधु को स्त्री जाति से बचना चाहिए । जहाँ तक भी संभव हो उसे स्त्रियों के सम्पर्क, उनके दर्शन, उनसे वार्तालाप और उनके सम्बन्ध में पठन-पाठन सभी से परे रहना चाहिये । तभी वह दृढ़तापूर्वक अपने साधना-मार्ग पर बढ़ सकेगा और विषय-विकार उसके मन में उत्पन्न होकर बाधक नहीं बनेंगे। आप भी ध्यान दें। ये सब बातें साधु के लिये और साधना करने वाली सम्पूर्ण पुरुष जाति के लिये भी हैं । आप लोग यह न समझ लें कि साधु को ही इनका पालन करना आवश्यक है । आप श्रावक हैं, जैन हैं और इस संसार की असारता को समझते हैं । आप संतों के द्वारा यह भी सुनते आ रहे हैं कि प्रत्येक जीव कर्मों से बंधा हुआ इस संसार में भ्रमण कर रहा है और उसका कल्याण संसार से मुक्त होने में ही है । इस प्रकार हमारी और आपकी, सभी आत्माएं इस संसार में अनन्त काल से जन्म और मरण के दुख भोगती चली आ रही हैं तथा इन्हें कर्मों से मुक्त करके अनन्त सुख की प्राप्ति कराना हमारा और आपका भी कर्तव्य तथा मुख्य उद्देश्य है। ___ इस प्रकार आप भी इसी मार्ग के पथिक हैं जिस पर हम चल रहे हैं । यह ठीक है कि आपकी गति धीमी है और मन से इस मार्ग की सराहना करते हुए भी २६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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