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प्रकार कपड़े धोना ही नहीं, यह बात नहीं है किन्तु एकदम झकाझक ही सदा रहें यह भावना भी नहीं होनी चाहिये ।
गया है
तो ये नौ बाड़ें या नौ बातें साधु को सदा ध्यान में रखनी चाहिये, जिससे प्रथम तो उसके आचरण में कहीं दोष न लगे और दूसरे मन विषय-वासनाओं की ओर न जाय । जो साधु इनका भली-भाँति ध्यान रखता है वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर सकता है । के लिये साधक को पूर्ण दृढ़तापूर्वक अपने
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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
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स्त्री परिषह साधारण नहीं है, इसे जीतने साधना - मार्ग पर बढ़ना चाहिये ।
विषय-भोगों से प्राप्त होने वाला सुख कैसा है, इस विषय में कहा
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नरहू वनिता तन
तनिको न कबहुँ
निज देह परिश्रम सुख की शठ भावना
चबावत है ।
भ्रम के वश में फंस कूकर ज्यों, रस के हित अस्थि निज शोणित चाखत मोद भरो. पर नेक विवेक न लावत है ॥
सेवन ते,
सुख पावत है । मिसते,
के
भावत है |
पद्य में बताया गया है कि अज्ञान वश कुत्ता हड्डी को मुँह में डालकर चबाता है । हड्डी उसके तालु में चुभ जाती है और वहाँ से खून निकलने लगता है । उस अपने ही खून को भ्रम के कारण कुत्ता हड्डी में से निकला हुआ खून समझता है और उसे बहुत स्वादिष्ट मानता हुआ पीता जाता है । उसे यह भान भी नहीं होता कि मैं जिस खून को पी रहा हूँ वह हड्डी में से निकला हुआ नहीं है, वरन मेरा ही है और इस प्रकार मेरा ही नुकसान हो रहा है ।
ठीक इसी प्रकार कामग्रस्त और स्त्री का सेवन करने वाले व्यक्ति की भी दशा होती है । वह भी नारी के संसर्ग से यह मानता है कि मैं सुख की प्राप्ति कर रहा हूँ । किन्तु विवेक के अभाव में वह यह नहीं सोचता कि जिसे मैं सुख मान रहा हूं, वह मेरे ही शरीर को शक्तिहीन करने जा रहा है ।
मेरे कहने का आशय यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना प्रत्येक साधक के लिये आवश्यक है | हम साधुओं के लिये तो अब्रह्मचर्य का सर्वथा निषेध है ही, किंतु
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