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प्रबल प्रलोभन
२६१ तीनों बातें गागर में सागर के समान हैं। अगर व्यक्ति इन्हें ग्रहण करले तो उसे संसार में कोई कष्टं ही महसूस न हो।
शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखने के लिये व्यक्ति को कम खाना चाहिये । और जब कलह की संभावना दिखे तथा सामने वाला व्यक्ति अत्यधिक आवेश में आजाय तो उसे भान भूला हुआ मानकर स्वयं ही गम खा लेना चाहिये अर्थात् शांत और चुप हो जाना चाहिये, इससे कभी झगड़ा बढ़ेगा नहीं। आखिर एक ही व्यक्ति कब तक बोलता रहेगा? तीसरी बात है नम जाना चाहिये। यह भी यथार्थ है । सदा अहंकार से गर्दन उठाए घूमने पर लोग अच्छा नहीं कहेंगे । थोड़ा सा धन इकट्ठा करके भी लोग गर्व से फूल जाते हैं। इससे उनकी कोई तारीफ नहीं करता । धनाढ्य व्यक्तियों को तो और भी सरल एवं नम्रता का व्यवहार सबसे करना चाहिये । आप जानते ही हैं कि आम पकने पर आम्र वृक्ष कितना झुक जाता है। यह उसकी नम्रता है। इसी प्रकार अगर धनी व्यक्ति धन के नशे में चूर न होकर यह समझ ले कि यह धन तो आज है कल नहीं, तो उसे गर्व करने की जरूरत ही न रहे। इसके अलावा वह यह भी जान ले कि अगर यह धन बना भी रहा तो क्या ? एक दिन इसे छोड़ कर मुझे जाना पड़ेगा। कवि वाजिद ने भी कहा है
मंदिर माल बिलास खजाना मेड़ियां । राज भोग सुख साज औ चंचल चेड़ियां ॥ रहता पास खवास हमेशा हुजूर में ।
ऐसे लाख असंख्य गये मिल धूर में ॥ तो बधुओ, कवि कहता है कि जिनके पास बड़े-बड़े महल, खजाने और मेड़ियाँ थीं तथा विशाल राज्य-भोग और सैकड़ों चंचल चेड़ियां यानी दासियां सेवाटहल करने के लिये रहती थीं। इतना ही नहीं हर वक्त एक खवास ही उनके समीप हाथ-पैर आदि दबाने के लिये रहा करता था, ऐसे ऐसे असंख्य व्यक्ति भी जब धूल में मिल गए तो हमारे पास घमण्ड करने के लिये है ही क्या ? अतः चाहे पास में कितना ही ऐश्वर्य क्यों न हो जाय व्यक्ति को सदा नम्र बना रहना चाहिये। ऐसा करने पर ही वह जगत में यश प्राप्त करता है।
(8) अब अंतिम या नवीं बाड़ आती है। इसमें कहा गया है कि अगर साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो वह शरीर की शोभा बढ़ाने का प्रयत्न न करे । हमारे बुजुर्ग संतों का तो यह कथन रहा है कि अगर चोलपट्टा नया हो तो चादर पुरानी ओढ़ो। दोनों चीजें नई होना साधुता के लिये ठीक नहीं है। इसी
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