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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
(६) छठी बाड़ साधु के लिये यह बताई गई है कि वह पूर्वकृत काम भोगों का स्मरण न करे । आप जानते हैं कि सभी संत बाल ब्रह्मचारी नहीं होते । अनेक साधु साल दो साल पांच-दस साल या इससे भी अधिक वर्ष तक गृहस्थ रहकर फिर साधु बनते हैं । उनके लिये ही कहा है कि वे पूर्व में भोगे हुए ऐशोआराम का चिन्तनस्मरण न करें । पत्नी के सहवास के प्रसंगों को भी याद न करें। क्योंकि भोगों का स्मरण करने से भी मन उन्हें पुनः भोगने की इच्छा कर सकता है ।
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(७) अब सातवीं बाड़ आती है । इसे समझाने के लिये कहते हैं - साधु सरस आहार न करे । प्रतिदिन सरस आहार करने से विकारों को प्रोत्साहन मिलता है । आपने सुना ही होगा
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जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन । जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी ॥
इस लोकोक्ति में से हमें यही जान लेना है कि मनुष्य जैसा भोजन करेगा, वैसा ही उसका मन बन जाएगा । अनेक व्यक्ति मांस, मदिरा तथा अण्डे आदि खाते हैं । ऐसे तामसिक भोजन को ग्रहण करने वाले कभी भी अपने विचार शुद्ध नहीं रख सकते तथा उनके जीवन में कभी आत्म-कल्याण की भावनाएँ और संसार से विरक्त होने की इच्छा जागृत नहीं होतीं । अतः साधु को तो रूखा-सूखा और सात्विक आहार ही करना चाहिये । ऐसे आहार से विकारों को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा तथा ब्रह्मचर्य की रक्षा होगी ।
(८) अब आठवीं बाड़ के विषय में जानना है । अभी-अभी मैंने बताया है कि जो साधु सातवीं बाड़ का ध्यान रखता हुआ सरस आहार नहीं करता उसे यह भी जानना चाहिये कि रूखा-सूखा और नीरस आहार भी ठूंस-ठूस कर भूख से ज्यादा नहीं खाना चाहिये ।
कम खाने से प्रथम तो स्वास्थ्य ठीक रहता है, पेट खराब नहीं होता और दूसरे आलस्य शरीर को निष्क्रिय नहीं बनाता। आप सभी को अनुभव होगा कि जब भी खाना भूख से अधिक खाया जाता है तो फिर आलस्य आता है और सो जाने की इच्छा होती है। घंटों आप सोये भी रहते हैं । किंतु साघु अगर प्रमाद में पड़कर घंटों सोया पड़ा रहे तो उसकी साधना में बाधा आएगी या नहीं ? अवश्य आएगी । इसलिये उसे कभी अधिक आहार नहीं लेना चाहिये, साथ ही यथाशक्य एकासन, उपवास, आयंबिल आदि करने चाहिये जिससे इन्द्रिय निग्रह हो सके ।
हकीम लुकमान कह गए हैं
कम खाओ, गम खाओ और नम जाओ ।
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