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________________ प्रबल प्रलोभन (२५६ करते हैं तो बाल की खाल निकाल डालते हैं। इसी प्रकार जब स्त्रियों से सम्बन्धित वार्तालाप प्रारम्भ होगा तो भारत की तो क्या अन्य देशों की स्त्रियों के भी रूपरंग, कद, वेष-भूषा, चाल-चलन तथा खान-पान आदि सभी के बारे में बातें चल पड़ेगी । स्पष्ट है कि साधक को उससे क्या लेना है ? वह नारियों से सम्बन्धित बातें पढ़ने और बोलने के प्रपंच में पड़े ही क्यों ? (३) अब तीसरी बाड़ बताई है कि स्त्री,पुरुष के आसन पर और पुरुष स्त्री, के आसन पर न बैठे। इसके अलावा जहाँ स्त्रियाँ बैठी हों वहाँ साधु दो घंटों से पहले न बैठे और जहाँ पुरुष बैठे हों वहाँ साध्वियां दो घंटे से पहले न बैठे। (४) चौथी बात यह है कि साधक कभी स्त्री के अंगोपांगों को निरखे नहीं। वह कभी यह विचार न करे कि अमुक स्त्री का मुंह, हाथ या पैर आदि अंग सुन्दर और सुडौल हैं। यहाँ तक कि स्त्री के चित्र को भी वह इस दृष्टि से न देखे। महात्मा कबीर ने कहा भी है नारी निरख न देखिये, निरखि न कीजे दौर । देखत ही ते विष चढ़, मन आवे कछु और ॥ सब सोने की सुन्दरी, आवे वास-सुवास । जो जननी हो आपनी, तो हु न बैठे पास ॥ कबीर जी का कहना है कि नारी का संपर्क महान् पापों का भागी बनाता है अतः मुक्ति के अभिलाषी को चाहिये कि वह नारी की ओर दृष्टिपात न करे । क्योंकि उसे देखने पर भी मन में विषय-विकारों का जागृत होना सम्भव है । वे तो यहां तक कहते हैं कि साधकों को अपनी माता के समीप भी नहीं बैठना चाहिये। मां के समीप बैठने पर और उसके शरीर को देखने पर उन्हें अन्य नारी के संसर्ग की इच्छा हो सकती है। (५) अब पाँचवीं बाड़ के विषय में बताते हैं । इस विषय में साधु को चेतावनी दी गई है कि वह ऐसे स्थान पर न रहे जहाँ रोशनदान तथा खिड़की आदि वाली दीवार हो या दीवार के स्थान पर घास-फूस या चटाई की आड़ की गई हो और उसके दूसरी तरफ कोई परिवार रहता हो। - ऐसी दीवार या आड़ का निषेध इसलिये किया गया है कि उसके दूसरी तरफ सांसारिक बातें होंगी और उनकी आवाज साधक के कानों तक पहुंचेगी। दुनियादारी की और विकार बढ़ाने वाली बातें अगर साधु सुनेगा तो उसकी साधना में बाधा आएगी और मन विकारग्रस्त हो जाएगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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