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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग ऐसा करना भी ईर्यासमिति का ध्यान न रखने से ही होता है । प्रथम तो यह असभ्यता का सूचक है, दूसरे जिस व्यक्ति पर राख व जूठन आदि का गन्दा पानी गिरता है वह व्यक्ति सज्जन हुआ तो चुपचाप आगे बढ़ जाता है, गलौज की नौबत आती रहती है । कभी-कभी तो देखकर चलने या करने से बड़ा अनर्थ भी घट जाता है । सूर्पनखा का पुत्र शंबुक चन्द्रहास तक घोर जंगल में बाँस की एक झाड़ी में हुए और दैविक ज्योति से जगमगाता हुआ गिरा । सिद्धि करने के करता रहा था । चन्द्रहास खड्ग झाड़ी के खड्ग की तपस्या अन्यथा गालीदेखकर कार्य न दृष्टि चन्द्रहास पर पड़ किन्तु शंबुक का ध्यान भंग होता और वह उसे उठाता, उससे पहले ही संयोगवश लक्ष्मण घूमते-घामते उधर आ निकले और उनकी गई। देखकर चकित हुए, उसे उठाया और यह देखने के लिये कि इस सुन्दर खड्ग में घार भी है या नहीं ? उन्होंने समीप की झाड़ी पर ही उसका वार किया । लक्ष्मण ने देखा नहीं कि घनी झाड़ी में भी कोई प्राणी हो सकता है । परिणाम यह हुआ कि उस झाड़ी में शंबुक जिस चन्द्रहास खड़ग के लिये पूरे बारह वर्षों से घोर तपस्या कर रहा था, उसी खड्ग से उसका मस्तक धड़ से अलग हो गया और लक्ष्मण इसका कारण बने । तो यह भयंकर कृत्य बिना देखे झाड़ी पर वार करने से ही घटा था । Jain Education International लिये बारह वर्ष बारह वर्ष पूर्ण समीप आकर इसलिये संवर के सत्तावन भेदों में पहले पाँच समितियाँ बताई गई हैं और पाँच समितियों में भी सबसे पहला स्थान ईर्यासमिति अर्थात् देखकर चलना चाहिये, देखकर प्रत्येक कार्य सम्पन्न करना चाहिये, इसे दिया गया है । " मैंने अनुभवी और ज्ञानी पुरुषों से सुना है कि ईर्यासमिति के शुद्ध होने पर ही व्यक्ति को चौदह पूर्व का ज्ञान हो सकता है । इसका कारण यही है कि देखकर चलने से असंख्य जीवों की हत्या से बचा जा सकता है और इस प्रकार अहिंसा का पालन होता है । धर्म का मूल अहिंसा ही है । अहिंसा के अभाव में कोई भी धर्मक्रिया अपना शुभ फल नहीं देती । 1 बड़े-बड़े आलीशान मकान नींव के सुदृढ़ होने पर ही टिक सकते हैं, इसी प्रकार अहिंसा रूपी नींव के मजबूत होने पर ही धर्म का विशाल भवन खड़ा किया जा सकता है और वह सुदृढ़ बना रह सकता है । पर यह तभी संभव हो सकता है, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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