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प्रबल प्रलोभन
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
भगवान महावीर ने संवर के सत्तावन भेद बताए हैं, उनमें से पन्द्रह भेदों का वर्णन किया जा चुका है। कल के प्रवचन में कहा गया था कि साधना करते हुए कभी-कभी प्रासंगिक चिंता हो जाती है, किन्तु मुनि उसे भी अपने हृदय में स्थान न दे तथा अपनी आत्मा का समस्त विकारों और कषायों से रक्षण करता हुआ पाप क्रियाओं से निवृत्त होकर धर्म-रूपी उद्यान में विचरण करे जहाँ आरंभ समारभ नहीं है और अशांति का कोई कारण नहीं है।
आज संवर के सोलहवें भेद यानी आठवें परिषह का विवेचन किया जाएगा। इस परिषह का नाम 'स्त्री परिषह' है ।
यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि साधना में लगे हुए पुरुष के लिए स्त्री जाति से बचना चाहिये और साधना-रत स्त्री जाति को पुरुषों से दूर रहना चाहिए। 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में 'स्त्री-परिषह' के विषय में गाथा कही गई है
सङ्गो एस मणुस्साणं, जाओ लोगम्मि इथिओ। जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामण्णं ।।
-अध्ययन २० गा० १६ अर्थात-लोक में पुरुषों का स्त्रियों के साथ जो संसर्ग है उस स्त्री संसर्ग को जिस संयमी पुरुष ने ज्ञानपूर्वक परित्याग कर दिया है उसकी साधुता सफल है ।
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