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________________ प्रबल प्रलोभन २५५ ___ इस संसार में चारों ओर प्रलोभन की असंख्य वस्तुएं बिखरी हुई हैं। इनसे आकर्षित होकर व्यक्ति नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं और भांति-भाँति की बिडम्बनाओं में फंस जाते हैं । धन एकत्रित करने के लिये लोग नाना प्रकार की बेई. मानियां करते हैं और परिवार की ममता के वश होकर भी अनेक प्रकार के कुकर्म कर डालते हैं : कभी-कभी तो हम यहाँ तक सुनते हैं और अखबारों में भी पढ़ते हैं कि सन्तान के जीवित न रहने पर लोग औरों के बच्चों को चुराकर किसी देवी-देवता के समक्ष बलिदान कर देते हैं। नर-बलि के समान भयंकर पाप और क्या हो सकता है ? कहने का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति धन, परिवार तथा यश-कीर्ति के प्रलोभन में आकर नाना प्रकार के अकार्य करता है। किन्तु इन सबसे बड़ा और जबर्दस्त प्रलोभन संसार में एक और है । वह है-काम विकार । काम का प्रलोभन इतना प्रबल है कि उससे व्यक्ति का बचना बड़ा कठिन होता है। साथ ही यह विकार इतना व्यापक भी है कि जगत के सम्पूर्ण जीव इसके चंगुल में पड़े रहते हैं, और इसके फेर में आकर अपनी बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान, सभी को तिलाञ्जलि दे बैठते हैं। एक छप्पय छंद में कहा गया है भीख-अन्न इक बार लौन बिन खाय रहत है। फटी गदरी ओढ़ वृक्ष की छांह गहत है । घास पात कछु डारि भूमि पर नित प्रति सोवत। . राख्यो तन परिवार भार यह ताको ढोवत ।। इहि भांति रहत चाहत न कछु, तऊ विषय बाधा करत । हरि हाय तेरी सरन, आय पर्यो इनसे डरत ॥ कहते हैं कि भिक्ष क दिन में एक बार ही भीख मांगकर अन्न लाता है और वह भी रूखा-सूखा नमक रहित, उसे ही खाकर रह जाता है। उसे नरम शैय्या और रूई के मोटे-मोटे गद्दे या रजाई ओढ़ने विछाने को नसीब नहीं होते। मांग-मूगकर लाई हुई फटी गुदड़ी ओढ़कर किसी वृक्ष-तले सोता और बैठता है तथा गुदड़ी भी न मिले तो पेड़ों के पत्ते या घास आदि बिछाकर पड़ा रहता है। __ उसका कोई स्वजन, संबंधी, मित्र या अपना कहने वाला भी नहीं होता, परिवार के नाम पर केवल उसका शरीर ही अपना होता है और उसी के भार को वह किसी तरह ढोता रहता है । किन्तु कवि कहता है कि ऐसे व्यक्ति को भी काम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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