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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
राजा अतिथि को देखकर अत्यन्त हर्षित हुए और उन्होंने सोचा कि सौभाग्य से आज इस विपत्ति के समय में भी हम अतिथि को खिलाये बिना खाने के दोष से बच जाएंगे। ऐसा विचारते हुए उन्होंने अतिथि को सहर्ष भोजन कराकर विदा किया । किन्तु इतने में ही एक शूद्र आ पहुंचा। राजा ने उसे भी प्रेम से खाना खिलाया और उसके पश्चात् स्वयं खाने की तैयारी की।
किन्तु अभी वे एक ग्रास भी नहीं खा सके थे कि एक भील अपने दो कुत्तों के साथ उधर आया और दूर से ही राजा को पुकारता हुआ बोला
"महाराज ! मैं और मेरे कुत्ते भूखों मर रहे हैं । कृपा करके हमें भी कुछ खाने को दीजिये।"
रन्तिदेव ने जब आँख उठाकर उस भील और उसके कुत्तों को भूख से तड़पते देखा तो बचा हुआ सब खाना बड़े प्रेम से उन्हें दे दिया। फलस्वरूप भील और दोनों कुत्ते तृप्त होकर चले गये ।
___ अब रन्तिदेव के पास अन्न का एक कण भी नहीं बचा था । केवल कुछ पानी था। उसी से उन्होंने अपना कंठ गीला करने के विचार से पात्र हाथ में लिया। किन्तु उसी समय एक करुण आवाज उनके कानों में टकराई
"मैं बहुत प्यासा हूँ, मुझे पानी चाहिये ।" ।
राजा ने देखा एक चांडाल वहाँ खड़ा था और पानी मांग रहा था। चांडाल को देखकर राजा के चेहरे पर पुनः हर्ष बिखर गया और उन्होंने अपना पानी का पात्र उसकी ओर बढ़ाया। पर यह क्या ? पलक झपकते ही उन्हें दिखाई दिया कि जिन्हें जल की आवश्यकता ही नहीं है वे ही विभिन्न वेषों में अतिथि बनकर आने वाले ब्रह्मा, विष्णु, शिव और धर्मराज अपने रूपों में प्रत्यक्ष उनके सामने खड़े हैं । राजा रन्तिदेव हर्ष-विह्वल होकर उनके चरणों में लौट गये ।
बंधुओ, वैष्णव धर्मग्रन्थों की यह एक कथा है। पर इससे हमें त्याग की महत्ता का अनुमान होता है । आवश्यकता से अधिक होने वाला धन-वैभव तो फिर भी व्यक्ति त्याग सकता है किन्तु जिस सामने आए हुए अन्न और जल के अभाव में जीवन जा रहा हो उसे भी सहर्ष औरों को प्रदान कर देने वाले महा-मानव विरले ही होते हैं । किन्तु ऐसे त्याग का फल ही महत्त्वपूर्ण होता है ।
राजा रन्तिदेव ने यह परवाह नहीं की कि अड़तालीस दिन से वे, उनकी पत्नी और बच्चे भूखे हैं, यह भी चिन्ता नहीं की कि इस उनचासवें दिन मिला हुआ
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