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चिन्ता को चित्त से हटाओ ...
२५१ "अरे मूर्ख ! क्या तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आती जो कि इस अमूल्य मानव जीवन से धर्माराधन करके कर्म-नष्ट करने के बदले उलटे पापों की पोट सिर पर रख रहा है ? मैं कहता हूँ कि पूर्व जन्मों के असंख्य पुण्यों के बल पर देवताओं को भी ललचाने वाला यह मनुष्य-जन्म तुझे प्राप्त हो गया है और आत्मोन्नति के सब साधन भी तुझे सुलभ हैं, फिर इन सबके द्वारा हो सकने वाले उत्तम कार्यों को बिगाड़कर तू अकार्य क्यों करता है ?"
वस्तुतः कवि का कथन यथार्थ है। मनुष्य लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर ही नाना कुकर्म करता है तथा आसक्ति के फेर में पड़कर विरक्ति और त्याग के महत्व को भूल जाता है । इस संसार में तो ऐसे-ऐसे त्यागी महा-मानव हुए हैं कि वे धन, धरा और धाम ही क्या अपने भोजन को भी औरों को खिलाकर स्वयं भूखे रहे हैं। त्याग का महत्व
आपने राजा रन्तिदेव के बारे में शायद कभी सुना होगा। वे अत्यन्त प्रजावत्सल थे । उनकी मान्यता थी कि जब तक प्रजा का पेट न भरे राजा को भरपेट खाने का अधिकार नहीं है।
दुर्भाग्यवश एक बार उनके राज्य में बड़ा भयानक अकाल पड़ा। जब लोगों के पास खाने को कुछ न रहा तो उन्होंने अपने राज्यकोष और अन्नागार में जो कुछ भी था, सब अपनी प्रजा में बांट दिया।
पर जब राज्य कोष और राज्य का अन्न-भंडार खाली हो गया तो राजा को खाने के लिये भी कुछ न बचा। इस पर राजा को अपनी रानी एवम् पुत्र सहित राजधानी छोड़नी पड़ी। क्योंकि राजमहल के ऊंचे-ऊँचे कंगरों को देखने से पेट नही भरता।
रन्तिदेव ने राजमहल छोड़ दिया किन्तु उन्हें खाने के लिए एक दाना भी अड़तालीस दिन तक नहीं मिला। अकाल के कारण कुए और तालाब भी सूख गए थे।
भाग्य से उनचासवें दिन किसी व्यक्ति ने राजा को पहचान लिया और उसके पास कुछ भोज्य-सामग्री थी अतः उसने थोड़ा सा घी, खीर, हलुआ और जल राजा के पास भेज दिया। राजा और रानी को प्रसन्नता हुई कि आज खाने को कुछ मिला । अपने दोनों बच्चों सहित वे लोग भोजन करने बैठ ही रहे थे कि एक ब्राह्मण अतिथि बनकर वहाँ आ गया।
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