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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
सावध व्यापारों का जो साधु सर्वथा त्याग कर देता है, वही अपनी आत्मा को पतन से बचाने में समर्थ हो सकता है। आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले आरम्भसमारम्भ ही हैं अतः इनसे बचने का प्रयत्न करना आवश्यक है। इसके अलावा आत्मा को पतित करने वाले क्रोधादिक कषाय हैं। इनके वशीभूत होने वाला प्राणी कभी ही अपनी साधना में अग्रसर नहीं हो सकता। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय एक-दूसरे का साथ देने वाले हैं। जहाँ इनमें से एक आया वहां क्रमशः चारों ही आ जाते हैं। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति इन सब के फेर में पड़कर निबिड़ कर्मों का बन्ध करता है, और चौरासी का चक्कर काटता रहता है । लोभ को तो सब पापों का मूल ही माना गया है। इसके कारण मनुष्य आसक्ति और ममता का बहाना लेकर पाप-मार्ग पर बढ़ता है।
संसार के महापुरुष प्राणियों को सदा सावधान करते हैं और इनसे बचने की शिक्षा देते हैं। कवि सुन्दरदास जी ने भी अज्ञानी मानव को धिक्कारते हुए कहा है--
बार बार कहयो तोहिं, सावधान क्यू न होइ,
ममता की ओट सिर काहे को धरत हैं ? मेरो धन मेरो धाम मेरे सुत मेरी बाम,
मेरे पसु मेरे ग्राम भल्यो ही फिरत है ।। तू तो भयो बाबरो विकाय गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंधकूप गेह तामें तू परत है । सुन्दर कहत तोहिं नेक हु न आवे लाज,
काज को बिगार के अकाज क्यों करत है ॥ । कवि ने मानव की भर्त्सना करते हुए उसे कहा हैं—“अरे अज्ञानी जीव ! मैंने तुझे नाना प्रकार से बार-बार समझाया है किन्तु अभी तक भी तू सावधान नहीं हुआ । मेरी पुनः-पुनः दी हुई चेतावनी को भूलकर ममता की ओट क्यों ले रहा है ? तू दिन-रात बस, मेरा धन, मेरा मकान, मेरे पुत्र, मेरी पत्नी और मेरी जमीनजायदाद है यह मानता हुआ भान भूले हुए हैं और गर्व से मतवाला बना घूम रहा है । पर क्या ये सब यथार्थ में तेरे हैं ? नहीं।"
'मुझे तो ऐसा लगता है कि तेरी मति-म्रष्ट हो गई है और बुद्धि कौड़ियों के मोल बिक चुकी है। तभी तो मेरा-मेरा करता हुआ तू पतन के गहरे कुए में गिरा जा रहा है।"
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