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चिन्ता को चित्त से हटाओ
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दिशाओं को अपनी जागीर समझने वाले साधु को राज-गुरु का पद प्रदान कर देने का ऐलान कर दिया ।
___ तो बंधुओ, कबीर ने भी यही कहा है कि मेरा मन ऐसी फकीरी को पाकर निश्चित हो गया है, जिसमें चारों दिशाओं की जागीरी मिल जाती है । अन्त में वे संसार के प्राणियों को सीख देते कहते हैं
"भाई ! संसार के इन नश्वर पदार्थों को इकट्ठा करके तुम क्या घमंड करते हो ? इनका उपभोग करने वाला यह शरीर तो अन्त में नष्ट होकर राख में मिल जायगा। इसलिये थोड़ा चिंतन करो और यह भली-भांति समझ लो कि अगर परमात्मा को प्राप्त करना है तो सांसारिक वस्तुओं पर से पूर्णतया आसक्ति त्याग दो और संतोष धारण करो। जब तुम्हें प्रत्येक प्रकार के अभाव में भी संतोष रहेगा और तनिक भी चिन्ता किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये न रह जाएगी, तब ही उस परम पिता परमात्मा के नजदीक पहुंच सकोगे।"
हमारा विषय भी आज 'अरति' अर्थात् चिंता रहितता पर ही चल रहा है। भगवान ने भी साधु को आदेश दिया है कि वह गाँव-गाँव विचरण करते हुए किसी भी प्रकार की चिन्ता का हृदय में आविर्भाव न होने दे, और कदाचित कोई चिंता का कारण बन भी जाय तो उसी क्षण उस चिन्ताजनक कष्ट या परिषह पर विजय प्राप्त करे:
अगली गाथा में और भी जानने योग्य बात कही है
अरई पिठओ किच्चा, विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुणीचरे ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र. अ. २. गा. १५ अर्थात्-चिन्ता की और पृष्ठभाग करके, हिसादि दोषों से रहित होकर, आत्मा का रक्षक और धर्म में रमण करने वाला, आरम्भ से रहित और कषायों से विमुख होकर विवेकी मुनि संयम-मार्ग पर विचरे ।
___आप सब भली भाँति जानते हैं कि चिन्ता मनुष्य को किस प्रकार विकल बना देती है और किये जाने वाले कार्यों की समीचीन रूप से सफल नहीं होने देती तो जब सांसारिक कार्यों में भी वह विघ्न डालती है तो फिर परलोक का साधन करने वाले धर्म की आराधना कब करने देगी ? अर्थात् नहीं करने देगी। इसलिये . कहा है कि साधना के मार्ग पर बढ़ने वाले साधु को चिन्ता की ओर से मुंह मोड़
लेना चाहिये तथा उसकी ओर पीठ करके हिंसा आदि पाँच प्रकार के सावध कार्यों . का भी त्याग कर देना चाहिये क्योंकि ये भी धर्माराधन में बाधक होते हैं। इन
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