________________
२४२
आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
पूर्णतया विलीन हो जाते हैं । दूसरे सांसारिक सुखों को मृगतृष्णा की उपमा भी दी जा सकती है ! हरिण जिस प्रकार बालू रेत के मैदान या रेगिस्तान में चमकती हुई रेत को पानी समझता हुआ दौड़ता चला जाता है, पर उसे पानी नहीं मिलता और वह प्यासा ही रह जाता है।
इसी प्रकार मनुष्य सांसारिक सुखों का उपभोग करता हुआ उन्हें अधिक से अधिक भोगना चाहता है किन्तु सच्चा और स्थायी सुख उसे कभी प्राप्त नहीं होता।
आगे कवि ने कहा हैमाया बेटी बढ़ सम घर माय रे,
छिन में ऊझल जाय के रहती नाँय रे । अपने हाथों हाथ विदा कर दीजिये,
मिनख जमारो पाप पड़यो जस लीजिये ॥ क्या कहा गया है ? यही कि कंजस के घर पर लक्ष्मी बढ़ जाती है पर वह उसका उपयोग क्या करता ? कुछ भी नहीं, भले ही वह कर्मों के संयोग से लोप हं. जाय या चोरी ही क्यों न चली जाय । इसलिये कवि का कथन है कि उसे इकट्ठा मत करो, वरन् अपने हाथों से परोपकार करके तथा दानादि में खर्च करके इस जन्म में यश के भागी बनो तथा परलोक के लिये पुण्य-संचय कर लो। क्योंकि धन तो आता है और चला जाता है । आज जो ऐश्वर्य के झूले में झूलता है कल वह भीख माँगता हुआ भी नजर आ सकता है। यही हाल शरीर का ही है। श्री चौथमल जी महाराज ने अपनी चादर का उदाहरण देकर बताया है कि शरीर को तो एक दिन नष्ट होना ही है फिर इसी को राजा ने-संवारने में तथा कीमती वस्त्रों से आवेष्ठित करने में लगे रहना कहाँ की बुद्धिमानी है ?
वस्त्र की आवश्यकता केवल तन ढकने के लिये ही तो होती है, आत्मा की उच्चता इससे नहीं बढ़ती। फिर पेटियां भर-भर कर रखने से और देश के असंख्य लोगों को उघाड़ा करके स्वयं कीमती कपड़े पहनने से क्या लाभ है ?
इसलिये अच्छा यही है कि वस्त्रों पर से ममता त्याग कर परिग्रह कम किया जाय। आप श्रावक हैं किन्तु आपके लिये भी तो सीमित परिग्रह रखने का विधान अणुव्रतों में है। क्या आप अपने ब्रतों का पालन करते हुए वस्त्रों की मर्यादा रखते हैं ? श्रावकों के लिये पांचवें ब्रत में सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, मकान, खेत आदि सभी सांसारिक पदार्थों के परिग्रह का आदेश है। अतः इस ब्रत का पालन करते हुए शुएए लोगों को परिगद कम से कम क्रना चाहिये ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org