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शरीर को कितने वस्त्र चाहिये ?
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कविता लिखते हुए कहते हैं- 'भाइयो और बहनो, मैं अपनी इस चादर का पूरा हाल आज आपको सुना रहा हूं आशा है आप सब इसे ध्यान से सुनेंगे। चादर का किस्सा इस प्रकार है कि एक बार मैं एक गृहस्थ से तीन गज जगन्नाथी कपड़ा लाया।
लाने के बाद नाप करके इसके दो पट मैंने किये और उन्हें सीकर चादर तैयार की। पर बंधुओ, इस संसार में सब कुछ क्षणिक और माया है यह हमें ज्ञान पूर्वक विचार करना चाहिये । अब आगे की बात सुनो
झलझलाट उज्जवल औ निर्मल ओढी थी जब जान ।
लगाय सीना हो गई मैली, अब जीरण पहचान । इसो न्याय से इस काया पर लेना लाकर ज्ञान,
अरे हे, ज्ञान विचारी, झूठी माया है इस संसार की ॥
कहते हैं --जब यह चादर नई थी, तब इसमें बड़ी चमक-दमक, स्वच्छता एवं निर्मलता थी। प्रारम्भ में जब मैंने इसे ओडना शुरू किया था, तब यह सभी को बहुत पसंद आती थी।
किन्तु ज्यों ही इसमें पसीना लगा और ऊपर से धूलि के कण चिपकने लगे यह मैंली और चमक रहित हो गई । और फिर धीरे-धीरे काम में लेने पर तो अब यह इतनी पुरानी और जीर्ण हो गई है कि पहचान में भी नहीं आती। कोई नहीं सोच सकता कि यह वही जगन्नाथी है।
बस इसीप्रकार यह काया अर्थात् शरीर भी है। शैशव और युवावस्था में तो इसके सौन्दर्य का पार नहीं रहता किन्तु धीरे-धीरे यही वृद्धत्व को प्राप्त होकर जीर्ण हो जाता है और एक दिन मिट्टी बनता है। केवल इसके द्वारा किये हुए अकाज ही अशुभ-कर्म बनकर साथ चलते हैं और भयानक कष्टों को भोगने के कारण बनते हैं । कवि बाजिंद ने यही विचार कर प्राणी को उद्बोधन दिया है
केती तेरी जान किता तेरा जीवना !
जैसा स्वप्न विलास, तृषा जल दीवना । ऐसे सुख के काज अकाज कमावना,
बार बार जम द्वार मान बहु खावना ॥ कितनी सुन्दर शिक्षा कवि दे रहा है कि-हे प्राणी ! तेरी कितनी सी जान और कितना सा जीवन ? यह सांसारिक सुख स्वप्न-विलाश के समान हैं । अर्थात् स्वप्न में नाना प्रकार के सुखों का उपभोग प्राणी करे किन्तु स्वप्न टूटते ही वे सब
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