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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग प्रार्थना समाप्त की और प्रार्थना की समाप्ति पर सब लोग उठकर अपने-अपने घर चले गये।
जब सब लोग उठकर चले गये तब अचानक ही गाँधी जी की दृष्टि घी के एक दिये पर पड़ी जो समीप ही जल रहा था।
उन्होंने चकित होकर पूछा-“यह घी का दिया यहाँ किसने जलाया है ?"
"मैंने जलाया है यह, आपका आज जन्म-दिन था न इसलिये ।' कस्तूरबा ने धीरे से उत्तर दिया ।
कस्तूरबा की बात सुनकर गांधी जी तनिक नाखुश होते हुए बोले -- "वाह ! मेरा जन्मदिन है तो क्या हुआ ? तुमने व्यर्थ इतना घी बरबाद कर दिया । देश के लाखों व्यक्तियों को तो खाने के लिये दो चम्मच तेल भी नहीं जुटता और तुम घी के दिये जलाती हो ? आइन्दा इस प्रकार का व्यर्थ खर्च मत करना !"
कहने का आशय यह है कि महापुरुष अपनी आवश्यकता से अधिक पैसा कभी भी खर्च नहीं करते क्योंकि वे देश के पैसे को सभी का समझते हैं और उस पर सबका अधिकार मानते हैं। इस प्रकार वस्त्र भी अधिक रखना वे दूसरे व्यक्तियों के शरीर पर से चोरी किया हुआ मानते हैं। वे केवल यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य की महत्ता केवल उसके उत्तम विचारों से बढ़ती है, वस्त्राभूषण पहनने से नहीं।
__इसीलिये साधु कम से कम और मर्यादित वस्त्र रखते हैं। अधिक वस्त्र रखना वे परिग्रह मानते हैं। उनके लिये वस्त्र केवल तन ढकने जितना ही आवश्यक होता है । कई संत तो ओढ़ने के लिये केवल एक चादर रखना भी काफी समझते हैं और पहनने के लिये भी एक ।
हमारे प्रसिद्धवक्ता श्री चौथमलजी महाराज ने एक भजन अपनी चादर को लेकर बनाया था। वह मनोरंजक होने के साथ ही शिक्षाप्रद भी है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है
कहूँ हाल मैं इस कपड़े का सुनजो सब नर नार,
लाया जांच मैं इक गृहस्थ से जगन्नाथी तीन वार । माप करी ने सिवी पाट दो चादर करी तैयार
अरे हे, ज्ञान विचारी झूठी माया है इस संसार की। जो पुरुष त्यागी होते हैं, उनका अन्तःकरण त्याग की ओर लगा रहता है । वे उच्चकोटि के संत और कवि थे अतः अपनी चादर को लेकर ही शिक्षाप्रद
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