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शरीर को कितने वस्त्र चाहिये ?
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हम साधुओं के लिये तो केवल शरीर ढकने के लिये आवश्यक हो, उतना ही वस्त्र रखने का आदेश भगवान ने दिया है और वस्त्र के अभाव में किंचित भी खेद खिन्न न होने तथा कष्ट महसूस न करने के लिये कहा है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है--
परिजुण्णेहि वत्थेहि होक्खामित्ति अचेलए । अदुवा सचेले होक्खामि इइ भिक्खू न चितए ॥
-अध्ययन २ गा. १२ अर्थात-वस्त्रों के सर्व प्रकार से जीर्ण हो जाने पर मैं वस्त्ररहित हो जाऊँगा, इस प्रकार का अथवा वस्त्रों से युक्त हो जाऊँगा, इस प्रकार का भी साधु कभी चिन्तन न करे ।
गाथा में यही कहा गया है कि साधु को वस्त्रों पर किसी भी प्रकार से ममत्व नहीं रखना चाहिये। संयम पथ पर चलने वाले साधु के वस्त्र भले ही सर्वथा जीर्ण क्यों न हो जाय, उसे यह विचार कभी नहीं करना चाहिये कि अब मैं वस्त्र रहित हो जाऊंगा और अब मुझे वस्त्र कैसे प्राप्त होंगे ? '
साधु यह भी न सोचे कि मेरे इन फटे हुए वस्त्रों को देखकर कोई न कोई गहस्थ मुझे नये वस्त्र अवश्य प्रदान करेगा और मैं वस्त्र सहित हो जाऊँगा । इस प्रकार के चिन्तन से मन में हर्ष की उत्पत्ति हो ही जाती है और हर्ष के कारण मोहनीय कर्मों का बन्धन होने लगता है। अतः साधु के लिये आवश्यक है कि वह वस्त्रों की प्राप्ति से हर्ष और अभाव से शोक का अनुभव न करे तथा सभी दशाओं में सम-भाव रखे।
साधक को प्रतिपल यह ध्यान रखना चाहिये कि वस्त्रों के द्वारा शरीर की रक्षा होती है और शरीर संयम-साधना में सहायक बनता है, किन्तु संयम का सच्चा पालन तो आत्मा के सम-भावों पर निर्भर है। अगर आत्मा में किसी भी प्रकार के मलिन विचार आते रहें तथा अच्छे संयोगों से हर्ष और दुखद संयोगों से विषाद उत्पन्न होता रहे तो आत्मा में सम-भाव नहीं रहता तथा वह मलिन होकर कर्मों से जकड़ जाती है तो वस्त्रों के अभाव में भी साधु को किसी प्रकार का दुःखद भाव नहीं लाना चाहिये और उनके प्राप्त होने पर प्रसन्नता का अनुभव भी नहीं करना चाहिये।
अगली गाथा में कहा गया हैंएगयाऽचेलए होइ, सचेले आवि एगया । एयं धम्मं हियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए ।
- उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २०१२
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