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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग किस्में जान लेने से और उनकी कीमत पूछ लेने से ही क्या होगा ? कपड़ा न आपका कहलायेगा और न ही आपके उपयोग में आएगा। जब तक आपने दुकानदार से फाड़ने के लिये नहीं कहा, तब तक वह दुकानदार का ही कहलाएगा न ? इसी प्रकार आपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में पढ़ लिया तथा उनके भेद-प्रभेदों को भी संतों से जान लिया, किन्तु जब तक वह आपके जीवन में नहीं उतरे यानी आपने उन्हें अमल में नहीं लिया, तब तक वह ज्ञान कपड़े की किस्में जानने और उनके केवल भाव पूछ लेने के समान ही है। वह ज्ञान आपको कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता। इसलिये कवि ने आगे कहा है शुद्ध सत्तावन संवर के, लेना पोथी माल संग भर के। संत हित दयाल, होशियारा, मारग में बसे हैं ठगारा ॥ कहते हैं-यह मनुष्य-जन्म रूपी शहर अनेक योनिरूप वनों को पार करने के पश्चात् मिला है और यहाँ पर हम सभी तरह की कमाई कर सकते हैं। जीव के पाँचसौ रेसठ भेद हैं । वह इस शहर से प्रत्येक स्थान पर जा सकता है। ऐसी बात नहीं है कि वह यहां से केवल स्वर्ग या नरक में ही जाता है । केवल स्त्रियां छठे नरक तक ही जाती हैं अतः इनके लिये दो भेद कम हैं अर्थात् पाँचसौ इकसठ ही हैं। तो इस जन्म से जीव नर्कगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ही नहीं पाँचवीं मोक्षगति तक भी जा सकता है तो फिर उसे नरक और तिर्यंच गति का उपार्जन करके इस अमूल्य जन्म को क्यों व्यर्थ जाने देना चाहिये ? उसकी बुद्धिमानी इसी में है कि वह मोक्ष की प्राप्ति का ही प्रयत्न करे । और इसके लिये संवर के सत्तावन भेदों का ज्ञान करके उनके अनुसार साधनापथ पर बढ़ना चाहिये। पांच समितियों का पालन करना भी साधक के लिये परम आवश्यक है। इन समितियों का पालन करने पर ही साधक का चारित्र शुद्ध और दृढ़ बन सकता है। पांच समितियों में पहली समिति 'इर्यासमिति' कहलाती है। ईर्यासमिति ईर्यासमिति का अर्थ है-भली-भांति देखकर चलना । प्रत्येक प्राणी को सदा देखकर चलना चाहिये । मनुस्मृति में कहा भी है "दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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