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________________ दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् उसकी बुद्धि विकसित नहीं होती, विवेक जागृत नहीं होता तथा वह ज्ञानप्राप्ति भी नहीं कर पाता । किन्तु मनुष्य जो अपनी जिन्दगी के कई वर्ष बिता चुकता है, उसके लिये तो यह बात है नहीं । क्योंकि उसकी बुद्धि परिपक्व हो जाती है, विवेकपूर्णता प्राप्त कर लेता तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये भी उसे बहुत समय मिल चुकता है । आवश्यकता उसे केवल इतनी ही रहती है कि वह प्रमाद का त्याग करके सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करे, मिथ्यात्व से होने वाली हानियों को शास्त्र एवं सद्गुरु के उपदेशों से समझता हुआ उसका त्याग करे और अपनी बुद्धि तथा विवेक को सही मार्ग पर ले जाए । बुद्धि, ज्ञान और विवेक सभी में होता है किन्तु उसका सही उपयोग सब नहीं कर पाते । आप जानते हैं कि एक डॉक्टर के हाथ में भी शरीर को चीर देने वाले तेज अस्त्र होते है तथा एक डाकू के हाथ में भी वैसे ही अंग-भंग कर देने वाले हथियार रहते हैं । किन्तु डॉक्टर अपने अस्त्रों का सही उपयोग करने के कारण प्राणी को जीवन-दान देता है और डाकू अपने हथियारों का दुरुपयोग करने के कारण जीवन का खात्मा कर देता है । हथियार दोनों के ही हाथ में होते हैं किन्तु एक उनका सदुपयोग और दूसरा दुरुपयोग करता है । इसी प्रकार अपवाद रूप कुछ पागल अथवा ऐसे ही इने-गिने व्यक्तियों को छोड़कर बाकी सभी मानवों के पास बुद्धि, विवेक, ज्ञान एवं आत्म-शक्ति होती है । किन्तु वे इन चीजों का सदुपयोग नहीं करते, इन्हें आत्म-कल्याण की साधना में नहीं लगाते । उलटे भोगों के साधन जुटाने में, परिग्रह बढ़ाने में अथवा सांसारिक संबंधियों के प्रति घोर ममत्व रखते हुए उनके लिये नाना प्रकार के कुकर्म और अनीतिपूर्ण व्यापारों को करने में लगा देते हैं । परिणाम यह होता है जो साधन उन्हें आत्मकल्याण में सहायता दे सकते हैं, वे ही उन्हें पतन की ओर ले जाने में सहायक बनते हैं । FT इसलिये बंधुओ, हमें जबकि यह मानव-जन्म मिल गया है, पाँचों इन्द्रियाँ भी परिपूर्ण मिली हैं, संतों की संगति से वीतराग की वाणी सुनने का भी अवसर मिल रहा है तो इन समस्त साधनों का लाभ उठाने में ही हमारी बुद्धिमानी है । जो कुछ हम सुनते हैं, धर्मग्रन्थों में पढ़ते हैं, उसे जीवन में उतारना भी चाहिये । अन्यथा सुनने और पढ़ने से कोई लाभ नहीं हो सकेगा । जिस प्रकार आप कपड़े की दुकान पर पहुँचते हैं, और विभिन्न प्रकार के कपड़े देखते हैं तथा उनके भाव आदि भी सब पूछ लेते हैं किन्तु केवल कपड़ों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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