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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इसलिये बंधुओ प्रत्येक मनुष्य को अपने इस दुर्लभ जीवन की महत्ता को समझना चाहिये तथा उसके द्वारा अपने उत्तम और इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये । ऐसे अमूल्य भव को पाकर भी अज्ञान के कारण और भोगोपभोगों में डूबे रहकर अगर हमने इसे व्यर्थ कर दिया तो इससे बढ़कर मूर्खता हमारी और क्या होगी ? एक छोटा शिशु जो कि अज्ञानी होता है, उसे भले ही हाथ में हीरा दे दिया जाय, वह उसका मूल्य नहीं समझता और किसी व्यक्ति के द्वारा दो पैसे का रंगविरंगा मिट्टी का खिलौना लेकर ही वह हीरा उसे दे देता है या एक ओर फेंक देता है । अगर कोई मनुष्य अज्ञानी है तो वह भी ठीक उस शिशु के समान ही है । वह भी अपने अमूल्य मानव जन्म रूपी हीरे की कोई कद्र नहीं कर पाता तथा भोगोपभोग रूपी मिट्टी के रंग-बिरंगे खिलौनों के बदले अपने मानव-जन्म रूपी अमूल्य रत्न को व्यर्थ गँवा देता है और जब वे भोग-रूपी मनमोहक खिलौने टूट जाते हैं तो फिर अन्त में पश्चात्ताप करता है । किन्तु तब क्या हो सकता है ? बीता हुआ समय तो पुनः लौटकर आता नहीं, केवल पछतावा ही हाथ लगता है । वीतरागों की वाणी सुनाने वाले हमारे शास्त्र इसीलिये बार-बार प्राणियों को आगाह करते हैं तथा उन्हें समझाते हैं कि अपने इस दुर्लभ जीवन का लाभ उठाओ और प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करो ताकि यह निरर्थक न चला जाय । कहा भी है स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पाद शौचं विधत्ते । पीयूषेण प्रवरकरिणं बाहयत्यंन्धभारम् ॥ चिन्तारत्मं विकिरति कराद् वायसोड्डायनार्थं । यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ - जो व्यक्ति आलस्य अथवा प्रमाद के वश मनुष्य जन्म को निरर्थक गँवा रहा है, वह अज्ञानी पुरुष मानो सोने के थाल में मिट्टी भर रहा है, अमृत से पैर धो रहा है, श्रेष्ठ हाथी पर ईन्धन ढो रहा है और चिन्तामणि रत्न को कौए उड़ाने के लिए फेंक रहा है । - सिन्दूर प्रकरण ५ वस्तुतः ऐसा करने वाला व्यक्ति महामूर्ख और अज्ञानी बालक के सदृश है 1 पर बालक फिर भी अपनी अज्ञानता के लिये क्षम्य है, क्योंकि अल्पायु होने के कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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