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________________ दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् यहाँ आप विचार करेंगे कि नरक तथा तिर्यंच गति में न सही पर देवगति में तो जीव चाहे जो कुछ कर सकता होगा, क्योंकि मनुष्य भी तो स्वर्ग पाने की अभिलाषा रखते हैं। आपका यह विचार करना अनुचित नहीं है। नरक और तिर्यंच गति की अपेक्षा देवगति श्रेष्ठ है । वहाँ मृत्युलोक की अपेक्षा जीव अधिक सुख प्राप्त करता है तथा भोगोपभोगों में निमग्न रहता है । किन्तु वह सब उसे अपनी आयु के समाप्त होने तक ही प्राप्त रहते हैं । अपने ज्ञान के द्वारा जब वह जान लेता है कि मेरी आयु संपूर्ण होने को है तो वह बहुत आर्तध्यान करता है तथा कर्मों का बंधन करके वहाँ से निकलकर पुनः दुःख भोगने और जन्म-मरण करने लगता है। इसके अलावा वहाँ पर जीव जितने काल तक रहता है, केवल पुण्य कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त भोगों को भोगने में ही इतना लीन रहता है कि आत्मा को कर्म-मुक्त करने का कोई प्रयत्न नहीं करता । स्वर्ग में रहकर आत्म-कल्याण के लिये कुछ भी त्याग अथवा साधना नहीं की जा सकती। इसीलिये कवि ने मनुष्य-जन्म को ही सबसे बड़ा और ऐसा नगर बताया है, जहाँ पर जीव धर्माराधन का बड़े से बड़ा व्यापार करके उसके फलस्वरूम मोक्ष रूपी नफा भी हासिल कर सकता है । स्थानांग सूत्र में कहा गया है कि देवता भी तीन बातों के लिये लालायित रहते हैं तओ ठाणाई देवे पोहेज्जा माणुस भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुलपच्चायाति । देवता भी तीन चीजों की इच्छा करते हैं—मनुष्य जीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । ऐसा क्यों ? इसलिये कि जीव मानव-पर्याय पाकर ही त्याग, नियम, प्रत्याख्यान, तपस्या एवं संयम साधना कर सकता है । और किसी भी गति या किसी भी योनि में यह संभव नहीं है । तो देवता भी जब मानव जन्म पाने के लिये व्याकुल रहते हैं तो क्यों नहीं इस जन्म को सर्वश्रेष्ठ और कवि के शब्दों में सबसे बड़ा शहर कहाजायेगा। यही वह स्थान है जहाँ से मनुष्य निकृष्ट कर्म करके अधोगति में जा सकता है और श्रेष्ठ कर्म करके सदा के लिये संसार-मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति भा कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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