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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग ये कषाय आदि ही आत्मिक गुणों को नष्ट करते हैं । अतः कहा है -अरे जीवात्मन् ! तू अपने ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र रूपी धन का संरक्षण करने के लिये सावधान रह, गाफिल मत हो, क्योंकि तेरी साधना के मार्ग में इस धन को लूटने वाले अनेक ठग हैं । अनन्त काल से ये आत्मा को लूटते और हानि पहुँचाते चले आ रहे हैं । न इन्होंने अपनी आदत छोड़ी है और न जीवात्मा ही सावधान हुआ है । परिणाम यही हुआ कि जीव को चौरासी लाख योनियों में नाना प्रकार के दुःख सहते हुए भटकना पड़ा है। यही बात कहते हुए कवि ने आगे के लिये चेतावनी दी है भव अटवी में भटकत आया, बड़ा शहर मनुष्य भव पाया जी। अब कर ले यहाँ व्यापारा, मारग में बसे हैं ठगारा । भव अटवी यानी संसार रूपी अरण्य । इसमें भटकते-भटकते जीव इस मनुष्य जन्म रूपी बड़े नगर में आया है। नगर का महत्व आप सभी समझते हैं। प्रायः देखते भी हैं कि छोटे-छोटे गांवों में रहने वाले व्यक्ति वहाँ पर कोई कमाई न होने के कारण नागपुर, पूना, मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई आदि बड़े-बड़े शहरों में चले जाते हैं और वहाँ पर बड़े-बड़े व्यापार करके लखपति और करोड़पति बन जाते हैं। ___ मनुष्य जन्म को भी बड़ा शहर बताते हुए कवि ने बड़ी सुन्दरता और चतुराई से जीवात्मा को प्रतिबोध दिया है- भोले जीव ! तू चौरासी लाख योनियों में भटका है, किन्तु वे सभी योनियाँ ऐसे छोटे गांव साबित हुई हैं जहाँ तू कुछ भी आत्मा के लिये कमाई नहीं कर सका। पर अब अनन्त पुण्यों के उदय से तुझे मानव-जन्म रूपी यह बड़ा भारी शहर प्राप्त हो गया है और अब प्रयत्न करे तो चाहे जितनी कमाई तू यहाँ कर सकता है। वस्तुतः अन्य योनियों में जीव कुछ नहीं कर पाता । नरक, निगोद आदि निकृष्ट पर्यायों में न जीव में ज्ञान होता है न बुद्धि और न विवेक की ही प्राप्ति होती है । पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जीवों को आप देखते ही हैं। क्या वे अपनी आत्मा के हित और अहित को समझ सकते हैं ? नहीं, यहां तक कि हाथी और सिंह जैसा विशाल तथा शक्तिशाली शरीर पाकर भी जीव बुद्धि और विवेक के अभाव में अपनी आत्मा के स्वरूप को नहीं समझ सकता तथा अपने आत्म-कल्याण का कोई प्रयत्न नहीं कर सकता। उनका विशाल शरीर और अपार बल भी निरर्थक चला जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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