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________________ १| १ दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! कि हमें यह हमारे भारतीय महर्षियों तथा विचारकों ने सदा यही कहा है दुर्लभ मानव-जीवन बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है और इसलिये हमें उसे पूर्णतया सार्थक बनाने का प्रयत्न करना चाहिये । पर ऐसा तभी हो सकता है, जबकि हम अपनी आत्मा को उत्थान की ओर ले जाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहें तथा यह पतन की ओर अग्रसर न हो, इस विषय में सतत सजग और सावधान रहें । अब प्रश्न उठता है कि आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले कारण कौनकौन से हैं और उनसे आत्मा को किस प्रकार बचाया जा सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सहज ही यह कहा जा सकता है कि आत्मा को मलिन और दूषित बनाकर दुर्गति की ओर ले जाने वाले मुख्य कारण क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चारों कषाय हैं । इन चारों कषायों में बड़ा संगठन है । जहाँ एक कषाय ने मन पर कब्जा किया कि बाकी तीनों भी चुपके से उसका पीछा करते हुए अपना स्थान बना ते हैं। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना करके आत्मकल्याण करने की अभिलाषा रखने वाले साधक को अपनी आत्मा की इन कषायों से सदा रक्षा करनी चाहिये तथा इन्हें आत्म- गुणों का लुटेरा मानकर इनसे बचना चाहिये । प्रौढ़ कवि, शास्त्रविशारद पंडित श्री अमीऋषि जी महाराज ने अपने एक भजन में कहा है गाफल मत रह बनज़ारा, मारग में बसे हैं ठगारा । भजन की इस प्रथम पंक्ति में कवि ने जीवात्मा को बनजारे की उपमा दी है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष तथा मोह आदि को ठग बताया है, क्योंकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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