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________________ २४ शरीर को कितने वस्त्र चाहिये ? धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! हमारे धर्मशास्त्र आत्मा को निज रूप में रहने की नसीहत देते हैं । अर्थात् साधना के मार्ग पर चल पड़ने के बाद अगर कोई संकट सामने आए तथा उपसर्ग और परिषहों का सामना करना पड़े तो उस समय भी मन की स्थिरता बनाए रखने का आदेश देते हैं । मन को स्थिर रखना संवर तत्त्व का एक विधान है । अभी हम संवर के सत्तावन भेदों में से बाईस परिषहों के विमर्श कर रहे हैं । कल पाँचवें परिषद के विषय में बताया गया 'अचल परिषह' को लेंगे । अचल शब्द में प्रथम 'अ' आता है । इसका अर्थ है नहीं, और आगे आने वाले चैल' शब्द का अर्थ है वस्त्र । इस प्रकार अचल का मतलब वस्त्र का न होना अथवा मर्यादित होना है । Jain Education International आज के युग में कपड़ों या वस्त्रों के लिये क्या कहा जाय ? आप धनीमानी सेठ साहूकारों के बड़प्पन और समृद्धि का माप दंड भी वस्त्र हो गया है । अपनी ऋद्धि के अनुसार आप अपने और अपने घर की स्त्रियों के लिए रेशम, मखमल और अधिकाधिक जरी आदि से कढ़े हुए वस्त्र बनवाते हैं । अगर ऐसा न करें तो आपकी पोजीशन में कमी आती है और धब्बा लगता है । आपके घर की स्त्रियां अधिक से अधिक चमकीले और भड़कीले वस्त्रों को पहनकर घर से बाहर निकलती हैं तथा यहाँ स्थानक में आने के लिये तो उनकी सबसे पहली तैयारी उत्तमोत्तम वस्त्रों का चुनना ही होता है । विषय में विचारथा और आज छठे, २३८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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