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________________ २३६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग बाजी के कुकृत्य करके दीन-दरिद्रों का गला नहीं काटेगा तथा साथ ही अपनी बहियों के आधार पर उसने जितना भी लोगों से पैसा लूटा है, वह यथाशक्य लौटाने का प्रयत्न करेगा । साहूकार ने ऐसा ही किया और इसके अलावा भी अपने धन का बहुत बड़ा भाग अभावग्रस्त दरिद्र व्यक्तियों में बाँटकर भगवान की सच्चे दिल से भक्ति करने लगा । तो बंधुओ, ऐसे उदाहरण से हमें शिक्षा लेनी चाहिये कि किसी भी प्राणी को प्रत्यक्ष या परोक्ष में हानि पहुँचाना, उसके पेट पर लात मारना या उसे किसी भी प्रकार का कष्ट पाने के लिये बाध्य करना हिंसा की कोटि में ही आता है और हिंसा का फल कभी भी शुभ नहीं हो सकता । हमें सोचना चाहिये कि अपने जिस पेट और शरीर को नाना प्रकार से सुख पहुंचाने के लिये हम अनेकों प्रकार के पाप मन, वचन और कर्म से करते हैं, वह शरीर तो कभी अचानक ही या वयप्राप्त होकर जीर्ण होते हुए भी हमारी आत्मा का साथ छोड़ देगा । पर हमारे साथ उसके लिये किये हुए पाप कर्म अवश्य चलेंगे । कवि वाजिद का भी यही कथन है सुंदर पाई देह नेह कर राम सों, क्या लुब्धा बेकाम आतम रंग पतंग संग धरा धन धाम सों ? नहि आवसी, जमहूँ के दरबार मार बहु खावसी ॥ " कवि ने मोह माया में पड़े हुए अविवेकी एवं अज्ञानी मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहा है—''अरे आत्मबंधु ! यह पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण सुन्दर देह तुझे प्राप्त हुई है तो इससे सुंदर कर्म भी कर । व्यर्थ में ही क्यों तू धन, जमीन एवं मकान आदि नश्वर वस्तुओं में लुब्ध हो रहा है ? हे आत्मन् ! संसार का यह रंग पतंग के समान है जो कि पानी की बूंद पड़ते ही उतर जाता है । अतः इससे आकर्षित होकर तू कोई भी क्रूर कर्म मत कर, अन्यथा यमराज के दरबार में तुझे बड़ा कष्ट भुगतना पड़ेगा । Jain Education International कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक उस व्यक्ति को, जो संसार से मुक्त होने का अभिलाषी है, राग-द्वेष का सर्वथा त्याग करना चाहिये । इनके वशीभूत होकर ही व्यक्ति अन्य प्राणियों को कष्ट पहुंचाता है तथा कर्मों का बन्धन करता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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