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शत्र से भी मित्रता रखो! ..
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के दर्शन करता और उनसे प्रार्थना करता था--'हे प्रभो ! मुझे मुक्ति प्रदान
करना।"
__ मन्दिर का पुजारी साहूकार को और उसके कार्य को भली-भांति जानता था अतः वह उसकी इस प्रार्थना पर मन ही मन हंसता था। उसे गांव के उन व्यक्तियों पर जो कि साहूकार का शिकार बनते थे, बड़ी दया आती थी, अतः उसने एक बार साहूकार को शिक्षा देने का विचार किया।
अपने विचार के परिणाम-स्वरूप उसने एक दिन कुछ भुने हुए चने लिए और मंदिर के बाहर बने हुए चबूतरे पर बिखेर दिये । उसके बाद जब साहूकार दूर से मंदिर की ओर आता हुआ दिखाई दिया तो उसने उन भुने हुए चनों को पानी से सींचना शुरू कर दिया। साहूकार मंदिर तक आ पहुंचा और उपकी दृष्टि पुजारी के इस काम पर पड़ी। अत्यन्त चकित होकर उसने पूछ लिया
"पुजारी जी ! यह आप क्या कर रहे हैं ?'
"चनों की फसल उगा रहा हूँ सेठ जी।" पुजारी ने कृत्रिम गंभीरता पूर्वक सहज भाव से उत्तर दे दिया । पर पुजारी की बात सुनकर सेठ जी जोर से हंस पड़े और बोले
"पुजारी जी, लगता है कि आप आज पागल हो गए हैं। भला पत्थरों से चुने हुए इस फर्श पर आपके ये भाड़ में जलकर भुने हुए चने फसल के रूप में कैसे आएँगे ?"
पुजारी को तो साहूकार का कोई डर था नहीं, अतः उसने अब ठीक समय आया जानकर मुस्कुराते हुए उत्तर दिया
"सेठजी ! आपकी आत्मा पर भी तो लोभ और तृष्णा के पत्थर चुने हुए हैं और अनीति, बेईमानी तथा धोखेबाजी के भाड़ में आपकी प्रार्थना और भक्ति के शब्द जल गए हैं । किन्तु फिर भी आप उनके द्वारा मुक्ति-रूपी फसल उगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। तो, जली हुई प्रार्थना से भी अगर आपको मुक्ति-रूपी फल प्राप्त हो जाएगा तब मेरे इन भुने हुए चनों से फसल क्यों नहीं ऊगेगी ?"
पुजारी की यह बात सुनकर साहूकार के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा और उसकी आँखें खुल गई । वह उसी क्षण दौड़ा हुआ मंदिर में गया और भगवान के चरणों में लोट-लोटकर अपने समस्त पापों के लिये पश्चात्ताप करने लगा। उसने उसी समय प्रतिज्ञा कर ली कि आइन्दा वह जीवन में कभी भी बेईमानी और घोखे.
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