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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
ऐसे व्यक्तियों की भर्त्सना करते हुए शेखसादी कहते हैं
शुनीदम कि मरदाने राहे खुदा दिले दुश्मनां हम न करदन्द तंग | तुरा के मुयस्सर शब्द ई मुकाम, कि बा दोस्तानत खिलाफस्तो जंग ||
अर्थात् मुझे मालूम है कि सच्चे सन्त अपने नहीं करते । तू उनके उस उच्च स्थल पर कैसे पहुँच भूमिका को कैसे प्राप्त कर सकता है, जिसका कि अपने बना हुआ है ।
शत्रुओं के हृदय को भी दुखित
सकता है और उस उच्चतर मित्रों के प्रति भी शत्रुभाव
वस्तुतः ऐसे आस्तीन के साँपों की भी दुनिया में कमी नहीं है जो अपने हितकारी एवं शुभचिन्तकों की पीठ में छुरा भोंकने के लिये तैयार रहते हैं । वे भूल हैं कि बुराई का नतीजा कभी अच्छाई के रूप में नहीं मिलता । कभी शीघ्र और कभी देर से भी बुराई का फल बुराई के रूप में अवश्य मिलता है ! अगर इस जन्म में बच भी गए पूर्व पुण्यों के कारण, तो अगले जन्मों में भी उस अनुचित और क्रूर कर्म का फल मिले बिना नहीं रहता ।
जले बीज से फसल पैदा नहीं होती
एक साहूकार बड़ा धनी था किन्तु फिर भी अधिकाधिक धन जोड़ने के प्रयत्न में वह सदा लगा रहता था । उसका काम था लोगों को रुपया उधार देना और दुगुना - चौगुना ब्याज लेकर उन्हें कभी भी ऋणमुक्त न करना । इतना ही नहीं, बेचारे अपढ़ और गांवों के गरीब व्यक्ति जो पढ़ना और हस्ताक्षर करना नहीं जानते थे, उनसे वह कर्ज लेने पर अँगूठा लगवा लिया करता और उनकी ली हुई रकम पर आगे बिन्दियाँ लगाकर अथवा अंक लिखकर कुछ वर्ष बीतते ही रकम को लम्बी बताकर उनके घर-द्वार भी नीलाम करा लेता था । अनेकों व्यक्ति उस साहूकार की इस बेईमानी के कारण मकान व खेत आदि से रहित हो चुके थे । और वे स्वयं या उनके बच्चे दर-दर के भिखारी बन गए थे 1
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साहूकार पर इन सबका कोई असर नहीं होता था और वह दिन भर इसी प्रकार अनैतिक कार्य किया करता था । पर उसकी एक आदत यह थी कि वह दिन भर लोगों का गला काटने अथवा उनके पेट पर लात मारने का कार्य करने के पश्चात् प्रतिदिन शाम को गाँव के बाहर बने हुए मंदिर में जाकर भगवान
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