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________________ शत्र से भी मित्रता रखो! २३.१ इसीलिये साधक को राग-द्वेष दूर करने के लिए इस प्रकार विचार करना चाहिये-'ये निरीह जीवजन्तु जो मेरे शरीर को कष्ट पहुंचा रहे हैं इसे सहन करने में ही मेरी आत्मा का कल्याण है । क्योंकि यह शरीर जिसे ये खा रहे हैं, वह मैं नहीं हूँ। मैं तो केवल आत्मा हूँ जिसे खाने की इनमें तो क्या वनराज सिंह तक में शक्ति नहीं है । अर्थात्-मेरी आत्मा को कोई नहीं खा सकता और किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकता । इसके अलावा अगर मैं शरीर पर से इन्हें हटाऊँगा तो इनके आहार-ग्रहण में अन्तराय पड़ेगा और इन्हें मारने से मुझे हिंसा के पाप का भागी बनना पड़ेगा। अतः इन्हें जो अच्छा लगे वही ये करें मुझे इन्हें बाधा देकर क्या लेना है ?' इस प्रकार के वीरोचित भाव रखने से साधक के हृदय में राग-द्वेष की कमी होगी तथा उसमें समता एवं शांति की अजस्र धारा प्रवाहित होने लगेगी। उस समभाव की गंगा में उसकी आन्तरिक कालिमा धुल जाएगी और शुद्ध सात्विक भाव निखर आएंगे । जब अन्तःकरण में सात्विक भावों का उदय होगा तो क्षमा-भाव जड़ पकड़ लेगा और उस साधक को मरणांतक कष्ट देने वाले के प्रति भी क्रोध नहीं आएगा। शास्त्रों में अनेक इस बात को स्पष्ट करने वाले ज्वलंत उदाहरण प्राप्त होते हैं । गजसकुमाल मुनि के मस्तक पर अंगारे रखे गये, स्कंधक मुनि के शरीर की चमड़ी उतारी गई और मेतार्य मुनि पर प्राण-संकट आया। किन्तु इन सभी ने किंचित्मात्र भी रोष, दुःख अथवा द्वेष मन में लाये बिना इन मरणांतक कष्टों को सहन किया। ऐसी उत्कृष्ट क्षमा ही कर्मों का सम्पूर्ण नाश करने में हेतु बनती है। जो सच्चा साधु और सच्चा साधक होता है वह तो अपने को कष्ट पहुंचाने वाले व्यक्ति पर क्रोध न करके उलटे क्षमा और दया का भाव रखते हैं। कष्ट पहुंचाने वाले के प्रति भी दया रखने वाले एक संत का उदाहरण आपके सामने रखता हूँ। मैं अपना व्रत नहीं तोड़ गा ! एक वैष्णव संत नदी के किनारे स्नानार्थ पहुँचे । जैन मुनि तो कच्चे या सचित्त जल का स्पर्श भी नहीं करते । किन्तु वैष्णव साधु कच्चे जल से परहेज नहीं करते, अतः वे गंगा आदि नदियों में स्नान करते हैं । तो वे साधु जब नदी के समीप पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उसके जल में एक जहरीला और बड़ा बिच्छू बह रहा है । साधु को उस पर दया आई और उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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