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शत्र से भी मित्रता रखो !
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
___ कल हमने बाईस परिषहों में से पांचवें परिषह 'दंशमशक परिषह' के विषय में कुछ विचार व्यक्त किये थे । इस विषय में एक गाथा कल कही गई थी। आज उसी सम्बन्ध में दूसरी गाथा 'श्री उत्तराध्ययन' के दूसरे अध्ययन की कही जा रही है। गाथा इस प्रकार है
न संतसे न वारेज्जा, मणं पि न पओसए ।
उवेहे न हणे पाणे, भुजंते मंससोणियं ।। अर्थात्साधु मच्छर, मक्खी तथा डांस आदि विषैले जीवों को रुधिर एवं मांस खाने पर भी अपने शरीर से न हटावे । उनके काटने पर भी उन्हें किसी प्रकार का त्रास न पहुंचावे, उनके प्राणों का नाश न करे तथा उन पर किंचित् भी रोष न करते हुए उनके इस व्यवहार को उपेक्षावृत्ति से देखे।
इस गाथा में भगवान ने फरमाया है कि साधु परिषहों को समतापूर्वक सहन करते हुए डांस, मच्छर एवं मक्खी आदि जहरीले जन्तुओं को भी अपने शरीर पर से हटाए नहीं और उनका प्राण-नाश न करे। अपितु उन्हें अपना कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक करने दे तथा स्वयं उनके दंश द्वारा होने वाले कष्टों को पूर्ण समता एवं वीरतापूर्वक सहने करे । ऐसा वीरोचित आचरण करने से साधु के हृदय में शरीर के प्रति रहे हुए राग एवं उसे कष्ट पहुँचाने वाले जीवों के प्रति उत्पन्न होने वाले द्वेष के भावों में कमी होगी । राग एवं द्वेष आत्मा को निविड़ कर्म-बंधनों से जकड़ने वाले है
"रागद्वेषक्लिन्ननरस्य कर्मबंधो भवत्येवम् ।" -राग-द्वेष से युक्त प्राणी के कर्मों का बंधन अहनिशि होता रहता है ।
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