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क्षण विध्वंसिनी कायाः ?
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को काम में लेते हुए लक्ष्मी से बोला - "तुम थोड़ी दूर जाकर खड़ी रहो।" फिर दरिद्रता से कहा---' मेरे पास ठहरो ।' .. दोनों अपने-अपने स्थान पर खड़ी हो गई। इसके बाद महाजन ने लक्ष्मी से कहा-“तुम जरा इधर आओ।” साथ ही दरिद्रता से बोला-'तुम उधर जाओ।"
सेठ की बात सुनकर लक्ष्मी सेठ की ओर आई तथा दरिद्रता सेठ से दूर चली । इस पर सेठ बोला-"अहा ! लक्ष्मी आती अच्छी लगती है और दरिद्रता जाती हुई बड़ी सुन्दर दिखाई देती है।"
इस प्रकार लक्ष्मी सेठ के पास आ गई और दरिद्रता उससे दूर चली गई।
बंधुओ, यह है आप लोगों की करामात । लक्ष्मी को बुलाने और दरिद्रता को भगाने में तो आप बहुत चतुर हैं । किन्तु आपकी चतुराई केवल यहीं काम आएगी। क्योंकि कर्म ऐसे बेवकूफ नहीं हैं जो आपके कहने से दूर चले जाएंगे। वे तो जीव को तीनों लोकों में, कहीं भी चाहे छिप जाय, ढूढ़ लेंगे। इसलिए हमें यह प्रयत्न करना है कि वे कम से कम हमारे साथ बधे ।
और इसका केवल यही उपाय है कि हम राग तथा द्वेष को ही निर्मूल करें। जब तक हमारा राग सांसारिक वस्तुओं पर रहेगा तब तक लोभ और तृष्णा हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे । साथ ही द्वेष जब तक हमारी आत्मा में विद्यमान रहेगा, तब तक हमें कष्ट पहुंचाने वाले जीवों के प्रति हमारा क्षमा भाव नहीं रह सकेगा और हममें परिषह सहने की शक्ति नहीं आ पाएगी।
इसलिये मेरा यही कहना है कि हमें शरीर के प्रति राग-भाव छोड़ना चाहिये और शरीर को कष्ट पहुँचाने वाले डांस-मच्छर आदि जीवों के प्रति क्रोध या द्वेष नहीं आने देना चाहिये । जब हम ऐसा करेंगे तभी हममें पांचवें 'दंशमशक परिषह' को सहने की शक्ति आ सकेगी। चाहे साधु हो या श्रावक दोनों को ही परिषहों से जूझने की शूरवीरता रखनी चाहिए। तभी वह अपने आत्म-कल्याण के उद्देश्य में सफल हो सकेगा। धर्म-साधना का क्षेत्र समरभूमि के समान है और उपसर्ग तथा परिषह शत्र । प्रत्येक साधक को अपने इन शत्रुओं से निर्भय होकर मुकाबला करना चाहिए तथा मृत्यु का भी भय न रखते हुए निरंतर बढ़ते जाना चाहिये ।
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