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क्षण विध्वंसिनी काया ?
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करते हैं । किन्तु प्रत्यक्ष में उसके कानों में बड़े प्रिय और मधुर वाक्य कहते हैं ताकि वह प्रसन्न हो जाय । मीठी वाणी के वशीभूत होकर जब व्यक्ति उस दुर्जन से अपनत्व स्थापित कर लेता है तो फिर वह व्यक्ति की कमजोरी का लाभ उठाकर उसके अन्तर में प्रवेश कर जाता है और सभी रहस्यों को जानकर अनुचित लाभ उठाने लगता है ।
तो ऐसा होता है दुर्जन और मच्छर का स्वभाव । किन्तु ऐसे अवसरों पर भी शरवीर को कभी धर्य नहीं खोना चाहिए। कोई दुष्ट व्यक्ति हमारे साथ कितनी भी दुष्टता क्यों न करे, हमें उसे परिषह समझकर सहना चाहिये तथा उसके प्रति मन में रंचमात्र भी क्रोध या द्वेष का भाव नहीं आने देना चाहिये । _ पंजाब के कवि न्यामतसिंह कहते हैंतज-राग द्वेष न्यामत' सब पौद्गलिक हैं,
सुख में खुशियां, रंज में रोना न चाहिये । रोना न चाहिये तुम्हें रोना न चाहिये,
इस मोह नींद में तुम्हें सोना न चाहिये ।। कवि कहता है-मनुष्य को कर्मों का कर्जदार बनाने के दो ही मूल कारण हैं - राग और द्वेष । इसलिये हे आत्मन् ! अगर तू अपना कल्याण चाहता है तो राग और द्वेष के अन्दर मत फंस । ये दोनों ही आत्मा के सबसे बड़े शत्रु हैं किन्तु अनादिकाल से संबंध रहने के कारण वह इनसे पुनः पुन आकर्षित हो जाती है। .
इस संसार में जितने भी पदार्थ हैं सब पौदलिक हैं। इनका स्वभाव ही जीर्ण होकर नष्ट होने का है। ऐसी स्थिति में इनके संयोग से खुशी और वियोग से दुख का अनुभव करना बुद्धिमानी नहीं है। आज साधारण व्यक्ति थोड़े से सुख के साधनों को प्राप्त करके घमंड से फूल जाता है और अगर उनका अभाव हुआ तो रोने बैठ जाता है। वह यह नहीं सोचता कि आखिर इनके मिलने और न मिलने से आत्मा की क्या हानि और क्या लाभ है ?
संस्कृत का एक श्लोक है
"सम्पदि यस्य न हों, विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भवनत्रयतिलकम् अनयति जननी सुतम् विरलम् ।।
श्लोक बड़ा सुन्दर है। इसमें कहा गया है-सम्पत्ति प्राप्त होने पर जो हर्षित नहीं होता, विपत्ति आने पर दुखी नहीं होता तथा रणांगण में भी असीम धैर्य रखता हुआ भयभीत नहीं होता है, ऐसा तीनों लोकों के तिलक के समान पुत्ररत्न को विरली माता ही पैदा करती है।
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