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क्षण-विध्वंसिनीः काया ?
२२५ आये दु:खं व्यये दुःखं, धिगाः कष्टसंचयाः।" यानी-धन कमाने के समय में भी अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं और धन के खर्च होने पर भी अनेक प्रकार के दुःख अनुभव करने पड़ते हैं। इससे यह साबित होता है कि दुःख और पीड़ाओं के आश्रय-स्थल रूप इस धन को अनन्त बार धिक्कार है।
आगे गीदड़ ने कहा- "इसके अलावा काश्यप ऋषिराज ! यह मानव जन्म आपको चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद न जाने किन पुण्यों के बल पर मिला है और अगर आपने इसे धन के लोभ में आकर निरर्थक कर दिया तो फिर न जाने कौन सी तिर्यंच योनि में ही आपको जाना पड़े। मुझे ही देखिये, मेरे हाथ नहीं हैं अत. मैं हाथों के लिए तरसता हूँ, कोई मुझ पर वार करे तो मैं उसका बदला नहीं ले सकता । कितना दुखी हूँ मैं ? क्या आप भी इस मानव देह को छोड़कर ऐसा कोई दुखदायी शरीर पाना पसंद करेंगे ?"
गीदड़ की ये बातें सुनकर काश्यप ऋषि की आँखें खुल गई और वे अत्यन्त लज्जित हुए । उसी क्षण उन्होंने धन इकट्ठा करने का विचार त्याग दिया और अपने हीन विचारों के लिये पश्चात्ताप करते हुए पुनः अपनी साधना एवं तपस्या में लीन होने का निश्चय कर लिया। किन्तु वे समझ गए कि यह गीदड़ साधारण गीदड़ नहीं है अपितु इन्द्र है । यह अनुभव करते ही उन्होंने गीदड़ से कहा- "इन्द्रदेव ! मैं आपको पहचान गया हूँ अतः अपना छद्म-वेश त्याग दीजिये !' उसी क्षण गीदड़ का रूप त्यागकर इन्द्र अपने असली रूप में आ गये और काश्यप ने उनसे कहा- "मैं आपका कृतज्ञ हूँ कि आपने ठीक वक्त पर मुझे पतन की ओर जाने से बचाया है। वास्तव में ही मैं जरा से परिषह से घबराकर अपने इस दुर्लभ जीवन को नष्ट किये दे रहा था।"
काश्यप तपस्वी की बात सुनकर इन्द्र मुस्करा दिये और अपना प्रयत्न सफल जानकर अपने स्थान को चल दिये ।
वस्तुतः मनुष्य जन्म अमूल्य है और बार-बार नहीं मिलता। कवि वाजिन्दजी ने मानव को उद्बोधन देते हुए कहा है
बार बार नर देह कहो कित पाइये ? ___ गोविंद के गुणगान कहो कब गाइये ? मत चूके अवसान अबै तन मां धरे,
पाणी पहले पाल अग्यानी बाँध रे !
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