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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
खरा उतर जाता है, वही अपनी आत्मा का कल्याण करता है। कमजोर दिलवाले तथा परिषहों से घबरा जाने वाले व्यक्ति कभी भी अपने मार्ग पर नहीं बढ़ पाते और अपने उद्देश्य में सफल नहीं होते।
भजन की पंक्ति में कहा गया है- ना ठहरे जावे गीदड़ा।' यानी गीदड़ के समान डरपोक व्यक्ति न तो कर्म-क्षेत्र में टिक पाता है और न ही धर्म क्षेत्र में । वह तनिक सी कठिनाई सामने आते ही यहां से पलायन कर जाता है ।
__ वैष्णव साहित्य में एक लघुकथा आती है कि काश्यप नामक एक महान तपस्वी थे। एक बार वे एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे कि मार्ग में किसी धनी व्यक्ति की सवारी आती हुई दिखाई दी। उसे देखकर काश्यप ऋषि मार्ग में एक ओर हो गये किन्तु फिर भी उन्हें टक्कर लगी और वे गिर पड़े। सवारी चली गई।
इस घटना से उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने सोचा-"इस जगत में ‘धन ही सबसे बड़ी चीज है और इसीलिये धनवान व्यक्ति अपने आपको सबसे ऊंचा समझते हैं । मेरे पास धन नहीं था अतः मुझे सड़क पर गिरा दिया और किसी ने यह भी नहीं पूछा कि कहीं चोट लगी है।" ऐसा विचार करते हुए काश्यप ने ठान लिया कि अब मैं भी धन इकट्ठा करूंगा । तपस्या करने से कोई लाभ नहीं है, लाभ धनवान बनने में है।
महातपस्वी काश्यप के ऐसे विचारों को इन्द्र ने जान लिया और उसे बड़ा दुःख हुआ कि वे मार्ग में गिरा दिये जाने के अपमान और शारीरिक कष्ट से घबरा कर अपनी तपस्या से विचलित हो उठे हैं। उन्हें पुनः मार्ग पर लाने के विचार से इन्द्र ने गीदड़ का रूप बनाया और जहाँ काश्यप ऋषि बैठे थे, वहीं उनके पैरों के पास आकर बैठ गया और बोला
"ऋषिवर ! आज आप किस चिन्तन में लीन हैं ?"
"मैं धन कमाने का उपाय सोच रहा हूँ कि किस प्रकार प्रचुर धनार्जन करू ताकि संसार के इन सभी धनी व्यक्तियों से ऊंचा कहला सक।"
गीदड़ रूप धारी इन्द्र यह बात सुनकर हँस पड़े और बोले-'तपस्वीराज ! आपको यह क्या हो गया है ? क्या कोई बुद्धिमान पुरुष हीरे को छोड़कर कांच को ग्रहण करता है ? इस संसार में धन तो सदा ही दुःख का कारण बनता है अतः इसको ग्रहण करने की इच्छा महा-मूर्खता है। इसे तो त्याग करना ही विवेकी पुरुष का लक्षण है। क्योंकि
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