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क्षिण-विध्वंसिनी काया !....;
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....... भगवान का भी साधु के लिए यही आवेश है कि सदा आत्म-चिंतन एवं तत्वचितना में लीन रहने वाला महामुनि डांस, मच्छर आदि के दंश से विचलित न हो तथा अपनी संयम-साधना में दत्तचित्त बना रहे । जिस प्रकार हाथी समर-भूमि में तीर-तलवार आदि किसी भी शस्त्र के आघात की परवाह न करता हुमा आगे बढ़ता जाता है तथा शत्रु पर विजय प्राप्त करके ही छोड़ता है, इसी प्रकार साधु भी साधना के क्षेत्र में डांस-मच्छर आदि जीवों के उपद्रव और देश की परवाह न करते हुए आगे बढ़ता जाए और कर्म-रूपी जन्म-जन्म के शत्रुओं को परास्त करे। मारवाड़ी भाषा में बनाए गए भजन की एक पंक्ति इस प्रकार है"कायर ने चढ़े धूजणी, सूरा करे रे संग्राम,
ना ठहरे जावे गीदड़ा।" कहते हैं कि युद्ध के अवसर पर कायर व्यक्ति का कलेजा काँपने लगता है और उसका सम्पूर्ण शरीर थर-थर धूजने लग जाता है। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि वह शत्र का मुकाबला करे। ।।. . i. tiri किन्तु इसके विपरीत जो शूरवीर होता है वह कफन कंधे पर लिए जाता है तथा हृदय में किंचित मात्र भी भये न' रखता हुआ अपनी सम्पूर्ण शक्ति से बैरी का मुकाबला करता है। इसका फल यही होता है कि वह निश्चय ही अपने दुश्मन की परास्त कर विजयी बनता है। पर यह होता तभी है जब कि शरीर का ममत्व नि रखा जाय तथा जीवन रहेगा या नहीं इसकी चिन्ता सर्वथा छोड़ दी जाय । ऐसा शूरवीर ही कर सकते हैं । आचार्य चाणक्य ने कहा भी है
वृणं ब्रह्मविकां स्वर्गः तृण शूरस्य जीवितम् ।...
जिसाक्षात्या तुम नारी निःस्पृहस्य तृण जगत् ॥ ....... अर्थात् - ब्रह्मज्ञानी के लिए स्वर्ग तृण के समान है। शूरवीर के लिए जीवन तृण है, जितेन्द्रिय को स्त्री तृण है और निस्पृही के लिए जगत तृणवत् है।
इस श्लोक में भी बताया गया है कि शूरवीर के लिए जीवन तण के समान नगण्य होता हैं । हम इतिहास में पढ़ते हैं कि लाखों शूरवीरों ने अपने देश के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। वर्तमान समय में भी जब देश परतंत्र था सरदार भगतसिंह जैसे अनेकों देशभक्तों ने हँसते-हँसते अपने जीवन का बलिदान देकर भारत को स्वतंत्र किया।
इसी प्रकार धर्म का इतिहास भी कहता है कि धर्म पर अनेकानेक व्यक्ति हंसते हुए न्यौछावर हुए हैं । धर्म के मार्ग पर बढ़ना और उसमें आने वाले उपसर्गों और परिषहों से जूझना सच्चे साधक के लक्षण हैं। जो मुमुक्ष इन कसौटियों पर
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