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________________ उष्णता तो शीतलता से जीतो ! २२१ स्वरूप को समझ सकता है तथा उसे कर्म - बंधनों से छुटकारा दिलाने के लिये अपनी आत्मा की अनन्त शक्तियों को काम में ले सकता है । हमारा विषय परिषहों पर चल रहा है और उसमें से ग्रीष्म परिषह को आज लिया है । इस परिषह को सहन करने के लिये भी बड़ी दृढ़ता तथा समाधि-भाव की आवश्यकता है । अगर मन में समभाव व शांति रहेगी तभी साधक भयंकर गर्मी के कष्टों को बिना आर्त-ध्यान किये सहन कर सकेगा । यह परिषह तभी सहन किया जा सकता है जबकि शरीर को सुख पहुँचाने की आकांक्षा का त्याग कर दिया जाय । जब तक शरीर की ओर से साधक का अथवा साधु का मन परे नहीं रहेगा, तब तक उससे होने वाले कष्टों को वह भूल नहीं सकेगा । इसलिये आवश्यक है कि साधु व श्रावक सभी मन को दृढ़ रखते हुए उष्ण परिषह को सहन करें तथा अपनी साधना में इसे बाधक न बनने दें। यही संवर का मार्ग है और निर्जरा का हेतु बनता है । जो भव्य पुरुष ऐसा करेंगे वे अपनी आत्मा की अनन्त शक्तियों को जगाकर शाश्वत सुख को प्राप्त करने में समर्थ बन सकेंगे तथा परलोक में सुखी बनेंगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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