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आनन्द प्रवचमा पायाभाक सबमें परमात्मा को देखते हैं । इस विषय को स्पष्ट करने वाला एका छोटा सा उदाहरण हैविष्णुमय जगत
एक वैष्णव संत सदा ज्ञानोन्मत्त रहते थे तथा उनकी दृष्टि अन्तर्मुखी बनी रहती थी। वे कभी किसी से विशेष बात-चीत नहीं करते थे और न ही किसी से उसको अपेक्षा ही करते थे। जब धुन में आ जाते तो, गाँव में से भिक्षा ले. आते और नहीं तो कई दिन योंही गुजार देते थे।
___ एक दिन वे गाँव में गए और वहाँ से भिक्षा में उन्हें रोटी मिली। अपने स्थान पर आकर जब वे रोटी खाने लगे तो एक कुत्ता भी उनके साथ ही खाने लगा। यह देखकर कई व्यक्ति वहाँ आकर इकट्ठे हो गये और महात्माजी को कुत्ते के साथ रोटी खाते देखकर हँसने लगे । कोई-कोई तो उन्हें पागल कहने से भी नहीं चूके ।
जब महात्मा का ध्यान उनकी ओर गया तो उन्होंने लोगों से कहा- तुम, लोग हँसे किसलिये रहे हो ? देखो।
विष्णु परिस्थितो विष्णु विष्णुः खादति विष्णवे ।
कथं हससि रे विष्णो' 'सर्व विष्णुमय जगत् ॥ अर्थात्-विष्णु के पास विष्णु' है । विष्णु विष्णु को खिलाता है । अरे विष्णु तू क्यों हँसता है ? सारा जगत ही तो विष्णुमय है।
तो बंधुओ, मैं आपको संत तुकाराम के शब्दों में यह बता रहा था कि ब्रह्म का स्वरूप जानने की इच्छा रखने वाले को पहले काम-भोगों की इच्छा को जीतना चाहिये । विवेक के द्वारा जब यह जीत ली जाती है तो व्यक्ति को जात के सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा का अंश नजर लाते लगता है।
आप श्रावक हैं, और गहस्थ है अतः शायद कहे बैठे कि "ब्रह्मचर्य का पालन तो साधु ही कर सकते हैं . पर ऐसी बात नहीं है । श्रावक के लिये भी तो अणवतों का विधान है और उसमें एक है 'स्वदारासंतोष' इसका पालन करते हुए आप अपनी पत्नी के अलावा संसार की समस्त नारियों को माता और बहन के समान समझे तो भी काफी है। इतना करने पर भी आप एकदेश संयम का पालन करा सकेंगे और आपकी आत्मा उज्ज्वल बनेगी। आत्मा का शत्रु क्रोध
संत तुकाराम जी ने काम के पश्चात् क्रोध को त्यागने का आदेश भी दिया है। क्योंकि काम के समान ही क्रोध भी आत्मा का शत्रु है।
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