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________________ उष्णता को शीतलता से जीतो ! २१७ कवि कहता है-हे भाई ! पहले सुखलिप्सा अर्थात् सुख की लालसा का त्याग करो। जब तक अपने शरीर को सुख पहुंचाने के यत्न में रहोगे तथा क्षुधा, पिपासा, शीत एवं उष्णता आदि के परिषहों को सहन करने में कायरता रखोगे तब तक तुम्हारे जीवन में दृढ़ता कैसे आएगी और आत्म-शक्ति का विकास किस प्रकार हो सकेगा ? अतः सुख की आकांक्षा त्यागो, अल्प भाषण करो तथा परिमित अन्न का सेवन करो। भूख से अधिक खाने तथा तमोगुण की वृद्धि करने वाले पदार्थों का सेवन करने से भोग-लिप्सा बढ़ती है। कामविजय कैसे? हमारे शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये नौ बाड़ें लगाई हैं। उनमें से एक यह भी है कि मर्यादा से बाहर रत्तीमात्र भी आहार न किया जाय । किसान अपनी फसल की रक्षा के लिये एक बाड़ लगता है ताकि जानवर एवं चोर आदि अन्दर प्रवेश करके क्षति न करें। किन्तु ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये एक नहीं, वरन् नी बाड़ें लगाई गई हैं। इससे साबित होता है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है एवं सदाचार रूपी रत्न की रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये । भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में लिखा है यदासीदज्ञानं स्मरतिमिरसंस्कारजनितं, तदा दृष्टं नारीमयमिदमशेषं जगदपि । इदानीमस्माकं पटुतरविवेकाञ्जन जुषां, समीभूता दृष्टिस्त्रिभुवनं ब्रह्मेति मनुते । अर्थात-जब तक हम में कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार विद्यमान था, तब तक हमें सारा जगत स्त्री-रूप ही दिखाई देता था। किन्तु अब हमने विवेकरूपी अंजन आंज लिया है, इससे हमारी दृष्टि समान हो गई है और हमें तीनों भुवन ब्रह्म-रूप दिखाई देते हैं। ___ आशय यही है कि जब तक व्यक्ति काम के नशे में चूर रहता है, तब तक उसे अच्छे और बुरे का ज्ञान नहीं होता। भोगविलास के अतिरिक्त उसे अन्य कोई सुख नहीं जान पड़ता। किन्तु जब उसकी अन्तरात्मा में विवेक जाग जाता है तब उसे भोग-विलास भयकारक लगने लगते हैं तथा उसके मानस में ऐसा समभाव आ जाता है कि उसे प्रत्येक प्राणी में ब्रह्म ही नजर आता है। वह सोचता है- आत्मा न स्त्री है और न पुरुष । वह सबमें समान है केवल चोले का ही भेद है। वस्तुतः सच्चे साधु और फकीर सम्पूर्ण संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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