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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
आपको ज्ञात होगा कि स्नान दो प्रकार का माना गया | एक देश-स्नान और दूसरा सर्व स्नान । केवल हाथ, पैर, मुंह आदि धोना भी स्नान कहलाता है पर उसे देशस्नान कहते हैं । और सम्पूर्ण शरीर को जल से धोना सर्व स्नान कहलाता है । साधु के लिए शोभा-निमित्त यह दोनों प्रकार के स्नान वर्जित हैं । साथ ही शरीर पर जल के छींटे देना अथवा पखे से हवा करना भी निषिद्ध है । उसे जिन - : वचनों के द्वारा यही आदेश है कि वह ग्रीष्म के समस्त परिषहों को पूर्ण शांतिपूर्वक सहन करे । इससे कष्टों का अनुभव भी कम होता है तथा कर्मों की निर्जरा होती है ।
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सारांश कहने का यही है कि साधु भगवान की आज्ञा के अनुसार परिषहों को शांति पूर्वक सहन करते हुए संयम साधना करे तथा अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करेगा तो उसकी बुद्धि का और ज्ञान का विकास होगा । ज्ञान के अभाव में वह अपनी संगति में आने वाले जिज्ञासु व्यक्तियों की शंकाओं का समाधान नहीं कर पाएगा तथा उन्हें सन्तुष्ट करके धर्म के मार्ग की ओर नहीं बढ़ा सकेगा । जनसाधारण को भगवान के सुझाए हुए मार्ग का दिग्दर्शन कराना संत का ही काम है । संत ही व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ने वाली बीच की कड़ी या माध्यम हैं । अतः उन्हें गूढ़ ज्ञान हासिल करना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है । संतों के समीप आने वाले व्यक्ति सभी एक सरीखे नहीं होते । कुछ तो सचमुच ही जिज्ञासु होते हैं और कुछ जैसे साधु की परीक्षा करने के लिए ही जो मन में आए वही प्रश्न पूछ डालते हैं । कोई आकर सीधा ही प्रश्न करता है - "महाराज ! ब्रह्म का स्वरूप क्या है ?"
अब अगर साधु ज्ञानी नहीं है तो इसका क्या उत्तर देगा ? बता सकेगा । किन्तु ज्ञानी होगा तो वह प्रश्नकर्ता का समाधान
सकेंगा |
प्रसंग आया है अत: संत तुकाराम जी के कुछ शब्दों को आपके सामने रखता हूँ। उन्होंने कहा है :
वह कुछ नहीं सहन ही कर
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"रे आधी साधी सहाते ब्रह्म कसें मग पाही । जिंकी सुखासन, भाषण थोड़े,
अन्नहि परिनित धेई । रे आधी "
काम क्रोधावारी,
तारी कुलाते "
कहते हैं कि ब्रह्म की जानकारी इस प्रकार सहज ही नहीं हो सकती । उसके लिये पहले काम, क्रोध, मद, मत्सर, दम्भ तथा मोह आदि को नष्ट करो तब फिर ब्रह्म अथवा आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना ।
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