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________________ उगता को शीतलता से जीतो! २१५ तीर्थंकर भगवान महावीर के कामों में कीलोके गया पार्श्वनाथ स्वामी को कमठ के जीव द्वारा नाना उपसर्ग सहन करने पड़े। ईसामसीह को सूली पर चढ़ाया गया और आज के युग में भी गाँधीजी को गोली खानी पड़ी। क्या ऐसे कष्टों और उपसर्गों को सामने देखकर उन्होंने आर्तध्याम किया था? क्या उन्होंने हाय-हाय, करके उन्हें झैला था ? नहीं, अगर ऐसा होता तो हम उनका स्मरण आज इस प्रकार नहीं करते। हम देखते हैं कि इस संसार में लाखों व्यक्ति भयंकर सर्दी; गर्मी सहन करत हैं भूख-प्यास से तड़प-तड़पकर मर भी जाते हैं । किन्तु उन्हें कौन याद करता है ? कोई नहीं, क्योंकि वे उन कष्टों को अभावों के कारण सहन करते हैं तथा दिन-रात, भगवान को कोसते हुए घोर आर्तध्यान करते हैं। उनके जीवन में शांति या संतोष, का कभी आविर्भाव नहीं होता। परिणाम यह होता है कि उस अभाव को त्याग नहीं कहा जाता और उसका कोई लाभ नहीं होता क्योंकि विपत्ति की भावनाएं शुद्ध और शांति पूर्ण नहीं रहतीं। किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार के सुखों से उदासीन रहता है तथा शरीर को केवल संयम-साधना के लिये चलाने लायक खुराक देता है. उससे अधिक उसकी परवाह नहीं करता। वही भव्य पुरुष त्याग के फल को हासिल करता है, सांछु भी शारीरिक सुखों का त्याग करके केवल उसे चलाने के लायक अन्न देता है, बाकी उसको अनुभव होने वाले किसी भी परिषह को कष्ट नहीं मानता तथा पूर्ण शांति एवं संतोष-पूर्वक संयम-साधना करते हुए जीवन-यापन करता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में ही आगे कहा गया है...... उन्हाहितत्तो मेहावी, सिणाण नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ।, अध्ययन २, गा. ६ अर्थात्-बुद्धिमान साधु उष्णता के परिताप से तप्त होने पर भी स्नान की इच्छा न करे, और शरीर को जल के छोटे से भी न देवे तथा अपने आपको पंखों भी न करे। इस प्रकार बताया गया है कि जो बुद्धिमान साधु होता है वह भगवान की आज्ञा का पुर्णतया पालन करता है तथा गर्मी के भीषण ताप से पीड़ित होने पर भी उस पीड़ा को पीड़ा नहीं मानता । वह असह्य उष्णता महसूस होने पर भी शीतल जल से स्नान करने की आकांक्षा नहीं करता। तथा जल से भिगोकर पंखे आदि से हवा करने का स्वप्न में भी विचार नहीं करता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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