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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
लेते हैं। साथ में दिन भर ठण्डाई, शरबत, बर्फ का जल आदि पेय पदार्थ ग्रहण करते हैं ताकि गरमी का कम से कम कष्ट महसूस हो।
किन्तु साधु शरीर को सुख पहुँचाने वाले इन सब साधनों का त्याग करते हैं । वे भिक्षाचरी एवं जल आदि लाने के लिए समय पर निकलते हैं और एक गांव से दूसरे गांव के लिए भी विचरण करते हैं। किन्तु न वे पैर में कुछ पहनते हैं और न ही मस्तक को धूप से बचाने के लिए छाते ही लगाते हैं। इसी प्रकार वायुकाय के जीवों की हिंसा से बचने के लिये पंखे नहीं चलाते और न किसी भी प्रकार से
___ भगवान का आदेश ही यह है कि साधु भयंकर से भयंकर गर्मी का अनुभव होने पर भी घबराये नहीं और यह विचार ही न करे कि इस ताप से मुझे कब शांति मिलेगी। वह अन्य परिषहों के समान ही उष्ण-परिषह को भी पूर्ण शांति तथा समभाव से सहन करे । कष्ट पहुंचाने वाली कैसी भी स्थिति क्यों न आए, वह उससे मुकाबला करने के लिए तैयार रहें। संत तुकाराम जी कहते हैं 51st
"आलिया योगासी असावे सादर,
देवावरी -भार. टाकनिया।" कोई भी संकट या कष्ट, अगर हम पर आता है. तो उसे हम शांति और संतोष पूर्वक सहने का प्रयत्न करें। क्योंकि वह तो आने वाला ही है। विपत्ति तो मनुष्य के पास बिना बुलाये आती है और अपनी कसौटी पर कसकर बता देती है कि कौन खरा है और कौन खोटा ?
लोकमान्य तिलक ने एक स्थान पर लिखा है
"कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं, जो मनुष्य साहस के साथ उन्हें सहन करते हैं वे अपने जीवन में विजयी होते हैं ।
एक पाश्चात्य दार्शनिक 'क्वार्ल्स ने भी लिखा है"He has that no cross will have on crown."
जिसने विपत्ति नहीं झेली उसे: राजमुकुट नहीं मिलता।
राजमकट से अभिप्राय उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति होना ही है । अंगर हम इतिहास उठाकर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि संसार में जितने भी महापुरुष और महान आत्माएँ अवतरित हुई हैं वे सेब भयानक कष्टों को सहकर ही अपना आत्म कल्याण कर सकी हैं और सदा के लिए अमर बनी हैं।
जESI | TTETTIST:
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