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उष्णता को शीतलता से जीतो !
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर के भेदों में से हम बाईस परिषहों का वर्णन कर रहे हैं, जिनमें से क्ष ुधा - परिषह, पिपासा - परिषह एवं शीत- परिषह के विषय में बताया जा चुका है । आज चौथे परिषह के विषय में कहा जाएगा। चौथा उष्ण- परिषह है । इसके विषय में कहा गया है
उसिणं परियावेण घिसु वा परियावेण
परिवाहेण सज्जिए ।
सायं नो परिवेवए ।
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— श्री उत्तराध्ययन सूत्र, २-८ ।
गाथा का अर्थ है— गरमी के परिताप से सभी प्रकार के दाह से पीड़ित हुआ अथवा ग्रीष्म ऋतु आदि के कष्ट से खेद को प्राप्त करता हुआ साधु साता के लिए आर्तध्यान न करे ।
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शीत के समान ही उष्ण ऋतु भी अपना प्रभाव डालती है तथा कड़ी सर्दी में जिस प्रकार शरीर को कष्ट महसूस होता है, उसी प्रकार गरमी में भी देह को कष्ट का अनुभव होता है ।
आप लोग तो ग्रीष्म से बचाव के लिए अनेक उपाय काम में लेते हैं अतः
धूप में आप प्रथम तो घर से और ऊपर से सवारी में बैठकर समय पंखे तथा कूलर चालू रखते कमरा ही 'एयर कंडीशन्ड करा
इसका पूरा कष्ट कभी अनुभव नहीं कर पाते। कड़ी बाहर निकलते नहीं, और निकलते हैं तो जूते, छाते इधर से उधर जाते हैं । घर पर रहते हैं तो हर हैं और उस पर भी गर्मी महसूस होती है तो पूरा
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