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वही दिन धन्य होगा...!
२०७ ___हम देखते हैं कि जिस व्यापारी की दुकान पर वस्तुओं का एक ही मूल्य होता है, अर्थात् वह गरीब या अमीर को देखकर कीमत में घटा-बढ़ी नहीं करता, उसकी दुकान प्रतिष्ठित मानी जाती है और उसकी साख बढ़ जाती है।
इसी प्रकार धर्म-रूपी दुकान खोलने वाला व्यक्ति भी अपने अन्तःकरण में यही कामना रखता है कि मुझ में सद्बुद्धि रहे तथा सरलता एवं सत्य मेरे जीवन में बने रहें । सांसारिक व्यापारी अगर किसी के साथ बेईमानी करता है तथा झूठ बोलकर उसे ठगता है तो पुन: उसकी दुकान पर कोई जाना नहीं चाहता । इसी प्रकार अगर व्यक्ति धर्म का ढोंग रचकर औरों पर झूठा प्रभाव जमाना चाहता है तथा गलत बातें बताकर उसे धर्म से गुमराह करने का प्रयत्न करता है तो समझ आते ही वह व्यक्ति उस पाखंडी के पास फटकना भी नहीं चाहता। व्यापार में जिस प्रकार अनीति और टेढ़ापन नहीं चलता, उसी प्रकार धर्म-शिक्षा और उसके लेन-देन में भी झूठ और माया का स्थान नहीं होता।
अब आगे क्या कहा जाता है यह सुनिये
जमा खर्च करने के समय में, हिसाव प्रतिदिन करता हैं ।
पुण्य-पाप हिसाब टटोलूगा, मैं वही धन्य दिन मानूंगा।
भौतिक वस्तुओं का व्यापार करने वाले व्यक्ति अपनी बहियों में एक-एक पाई का जमा-खर्च लिखते हैं तथा प्रतिदिन उस हिसाब को मिलाते हैं कि कितना खर्च हआ और कितनी आमदनी आज हुई ? अगर आमदनी से ज्यादा खर्च हो जाता है तो वह उसके लिये खेद करता हुआ अगले दिन से खर्च को कम, घटाने का निश्चय करता है।
किन्तु क्या धर्माराधन करने वाला और मुक्ति की इच्छा रखने वाला व्यक्ति ऐसा करता है ? नहीं, ऐसी बातों का लेखा-जोखा हर व्यक्ति नहीं रखता और पापपुण्य का हिसाब करना आवश्यक नहीं समझता । पर जो सच्चा साधक होता है और अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण से संसार का सदा के लिये त्याग करने की कामना रखता है वह अपनी धर्म-रूपी दुकान का हिसाब भी बराबर रखता है। वह प्रतिदिन सायंकाल में अपने पाप और पुण्य का लेखा-जोखा करता है कि उसके द्वारा कितना पाप आज हुआ। अपने शुभ-कर्मों के लिये वह घमंड नहीं करता वह तो यह विचार करता है कि आज मैंने कितना क्रोध, कितना कपट और कितना ईर्ष्या द्वष औरों के साथ किया । अपने इन दोषों के लिये वह पश्चात्ताप करता है तथा भविष्य में उन्हें कम करने का विचार पक्का करता है। साथ ही यह भी सोचता है कि मेरा वही दिन धन्य होगा, जबकि इन दूषित विचारों को मेरा मन पूर्णरूप से त्याग देगा।
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