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________________ २०६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग "महाराज ! आप विद्या वाले हैं और यह भंगी सिखाने वाला। कोई भी ज्ञान तब तक हासिल नहीं हो सकता जब तक कि सिखाने वाले गुरु से सीखने वाला शिष्य ऊँचे आसन पर बैठे।" राजा श्रेणिक की समझ में यह बात आ गई और वे सिंहासन से उतर पड़े। उन्होंने भंगो से कहा कि वह सिंहासन पर बैठे और तब अपनी विद्या सिखाये। बेचारा भगी फिर मुसीबत में पड़ गया और थरथर काँपते हुए सोचने लगा-"बगीचे के आम चुराने पर तो मृत्युदंड मिला हुआ है। सिंहासन पर बैठने का और क्या परिणाम होगा ? कहीं सारे खानदान को ही घानी में न पेल दिया जाय ?" पर वह राजाज्ञा का उल्लंघन भी कैसे करता, अतः सिकुड़-सिमट कर सिंहासन पर बैठा और जल्दी-जल्दी अपनी विद्या के गुर बताने लगा। इस बार राजा को शीघ्र ही सब समझ में आने लगा और वह अल्प-काल में ही विद्या सीख गया । पर उसके पश्चात् जब राजा के सैनिक उसे कैदखाने की ओर ले जाने लगे तो राजा ने कहा "अब यह मेरे गुरू हैं और मैं अपने गुरू को किस प्रकार मरवा सकता हूँ? इन्हें ससम्मान मुक्त करके घर पहुंचा आओ।" . तो बंधुओ, मैं आपको यह बता रहा था कि ज्ञान-प्राप्ति के समय किसी भी प्रकार के बड़प्पन का भाव ज्ञानाभिलाषी के हृदय में नहीं आना चाहिये । अगर ऐसा भाव मन में आ गया तो वह सम्यकज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। यह उदाहरण मैंने कवि के इस कथन को लेकर दिया है कि वह रत्नत्रय का . क्रय और विक्रय करना चाहता है । ऐसी स्थिति में अगर वह अपनी धर्म की दुकान का अहंकार करेगा तो न तो वह ठीक तरह से ज्ञान का विक्रय ही कर पाएगा और अहं के कारण क्रय तो करेगा ही कसे ? अहंकार को त्यागने पर और भंगी को गुरु मानकर अपने सिंहासन पर आसीन करके राजा श्रेणिक उसकी विद्या का क्रय कर सके थे। कवि की भावना यही है कि सम्यकदर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूपी इन रत्नों को, अगर मेरे पास कम हैं तो दूसरों से लूगा और दूसरों के पास मुझ से भी कम होंगे तो उन्हें दूंगा। यह लेने और देने की भावना जीव की तीसरी भावना है। आगे वह कहता है व्यापार में सत्य सरलता हो, यह मेरी अपनी आदत हो । धार्मिक व्यापारी होऊंगा, मैं वही धन्य दिन मानूंगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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