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________________ " २०४ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग उसके आम अत्यन्त मधुर और सुस्वादु होते थे । उसी राज्य में एक भंगी भी रहा करता था । किसी समय उसकी भंगिन गर्भवती हुई और उसकी आम खाने की तीव्र इच्छा हुई तब भंगिनने अपने पति से अपने दोहद को पूर्ण करने की जिद ठान ली । आम लाकर पत्नी को खिलाना कोई बड़ा कठिन कार्य नहीं था । किन्तु उन दिनों आम का मौसम नहीं था और आम बाजार में कहीं मिल नहीं सकते थे । केवल राजा श्रेणिक की वह अमराई हो ऐसी थी, जिसमें सदा आम फलता था और बारहों महीने प्राप्त हो सकता था । भंगिन को इस बात का पता था अतः उसने राजा की अमराई से आम लाने का आग्रह किया । भंगी बेचारा गरीब और निम्न श्रेणी का व्यक्ति था अतः पत्नी को डाँटता हुआ बोला - "तू भी कैसी बात करती है ? वह बाग राजा का है मेरे बाप का नहीं । जिस बगीचे में पक्षी पर भी नहीं मार सकते वहाँ जाकर मैं आम ला सकता हूं क्या ? तू तो तो मेरी गर्दन उड़वाने की बात कह रही है ।" यह सुनकर भंगिन ने कहा - "यह ठीक है कि है । किन्तु तुम तो ऐसी विद्या जानते हो कि बगीचे के द्वारा आप तोड़ कर अपने हाथ में ले सकते हो। आएगी ?" अमराई में कड़ा पहरा रहता बाहर से ही अपने तीर के वह विद्या आखिर कब काम बात भंगी की समझ में आ गई और उसने अपनी विद्या का प्रयोग करना तय कर लिया । वह आमों के बगीचे की ओर गया, अपनी उस विद्या अथवा कला के द्वारा आम तोड़ कर ले आया । राजा के बगीचे का आम साधारण नहीं था । अपूर्व माधुर्य से परिपूर्ण था । जब भगिन ने उसे खाया तो फिर एक दिन खाने से ही वह तृप्त नहीं हो सकी और प्रतिदिन आम लाने के लिए पति को भेजने लगी । त्रिया-हल से हारकर भंगी ने भी सोचा कि अपनी विद्या के द्वारा जब मैं सहज ही आम ला सकता हूँ तो घर में नित्य कलह क्यों होने दूं। और ऐसा विचार कर वह नित्य ही आम लाने लगा । इधर आमों की चोरी का पता बगीचे के रखवाले को लग गया । क्योंकि राजा के भय से बोला उसे कड़ी सजा देंगे । दिया । किन्तु फिर भी अद्भुत किस्म के वे दुर्लभ आम गिने-चुने थे । पहले तो वह नहीं कि महाराज ठीक रखवाली न कर पाने के अपराध में उसने दिन-रात बड़ी सतर्कता से पहरा देना प्रारम्भ कर उसे चोर का पता नहीं चला और आम कम होते चले गए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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