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वही दिन धन्य होगा..!
२०३ छूटते ही सब यहीं पड़ा रह जाएगा। लाभ तो उस द्रव्य से ही होगा जो मेरे साथ पुण्य के रूप में चलेगा। अब है दूसरी भावना जिसे भाते हुए कवि कह रहा हैइस शरीर को सुख-सुविधा पहुंचाने वाले जड़ द्रव्य को कमाने के लिए तो मैं दुकान खोल कर बैठता हूँ और अपना अमूल्य समय नष्ट करता ही हूँ, पर ऐसी सांसारिक . दुकान के समान ही जब मैं धर्म-रूपी दुकान भी खोललूगा, अपने जीवन के उसी दिन को धन्य समझगा। उस दुकान में आने वाले व्यक्ति को भी मैं कुछ जीवन को सुधारने के सूत्र बता सकूगा और स्वयं भी ज्ञान हासिल करूंगा।
'उपासक दशा सूत्र' में आनन्द श्रावक के विषय में वर्णन आता है कि वे अपने श्रावकों से कहते थे-"भाई ! दुनियादारी की बातें करनी हो, मेरे बड़े पुत्र के साथ करो, पर मेरे पास आए हो तो हे आयुष्मन् ! इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का पाठ करो, इसे समझो क्योंकि इसके अनुसार चलने पर ही आत्मा का कल्याण हो सकता है। इस प्रकार आनन्द श्रावक मुनि नहीं थे। संसारी व्यक्ति ही थे पर वे अपनी भौतिक दुकानदारी को छोड़कर धर्म की दुकानदारी करते थे। जिसके द्वारा आने वाले को भी आत्मोन्नति का उपाय बताते थे तथा स्वयं भी अपने आत्म-कल्याण के प्रयत्न में लगे रहते थे।
भजन में आगे साधक की भावना दर्शाई गई हैद्रव्य माल का निशिदिन में, क्रय विक्रय तो मैं करता है।
त्यों रत्नत्रय लगा-दूगा वही धन्य दिन मानूंगा। ___ व्यापारी जीव का कथन है-“मैं अपनी इस सांसारिक दुकान में भौतिक द्रव्यों का क्रय-विक्रय तो सदा ही करता हूँ, किन्तु मेरे पल्ले उससे क्या पड़ता है ? कुछ भी नहीं, मुझे तो कुछ लाभ तभी होगा जबकि मैं सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूपी इन तीन दुर्लभ रत्नों का क्रय और विक्रय करूंगा। मेरे पास जो कुछ है, उसे औरों को दूंगा तथा बदले में औरों से भी इसी प्रकार आत्मकल्याणकारी सूत्र हासिल करूंगा।
बन्धुओ, ज्ञान प्राप्त करने में किसी को भी विलम्ब नहीं करना चाहिये यह तो आप अनुभव करते ही हैं, किन्तु आपको यह भी समझना चाहिए कि ज्ञान चाहे छोटे से छोटे व्यक्ति के पास भी क्यों न हो, उसे लेने में कभी लज्जा का अनुभव नहीं होना चाहिए। गुरु का सम्मान
कहा जाता है कि राजा श्रेणिक के राज्य में आमों का एक बगीचा था।
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